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________________ श्री कमलबत्तीसी जी जिसकी दृष्टि सुल्टी है, उसका सब कुछ सल्टा है व जिसकी दृष्टि उल्टी है. उसका सारा ज्ञान उल्टा है । मिथ्यादृष्टि ग्यारह अंग नौ पूर्व का पाठी भी अज्ञानी है। __ स्वरूप में लीन होने पर इच्छा टूट जाती है । इच्छा ही राग है। समकिती को छठे गुणस्थान में सकषाय परिणमन रहता है। स्वरूप में लीन होने पर बुद्धि पूर्वक राग का अभाव होना ही शुद्धोपयोग है और यही सातवां गुणस्थान है। साधु, इसी छठे सातवें गुणस्थान का झूला झूलते हैं और जब क्षपक श्रेणी माड़कर समाधिस्थ होते हैं कि एक मुहूर्त में केवलज्ञान प्रगट होता है। मुनिराज को पंचाचार आदि का पालन करते हुए भेदज्ञान की धारा, स्वरूप की शुद्ध चारित्र दशा निरंतर चलती रहती है। जोर तो सदा अखंड शुद्ध द्रव्य पर ही होता है । क्षायिक भाव का भी आश्रय या आलम्बन नहीं लिया जाता क्योंकि वह तो पर्याय है, विशेष भाव है । बाह्य में सच्चे देव, गुरू,धर्म का आश्रय भी छूट जाता है। अपने ध्रुव स्वभाव के आलम्बन से ही निर्मल उत्पाद, ममल स्वभाव प्रगट होता है, इसलिए सब छोड़कर एक शुद्धात्म तत्व, अखंड परम पारिणामिक भाव के प्रति दृष्टि कर उसी के ऊपर निरंतर जोर रख, उसी की ओर उपयोग ढले, ऐसा पुरूषार्थ कर, यही शुद्ध स्वभाव, अरिहन्त पद प्रगट होने का उपाय है। प्रश्न-बाह्य में सच्चे देव, गुरू,धर्म का आश्रय छोड़ देंगे, तो मुक्ति कैसे होगी, अपना सच्चा देव, गुरू,धर्म कौन है? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं - गाथा-११ दर्सन न्यान सुचरनं, देवं च परम देव सुद्धं च । गुरं च परम गुरूव, धर्म च परम धर्म सभा ॥ शब्दार्थ - (दर्सन) सम्यक् दर्शन (न्यान) सम्यक् ज्ञान (सुचरनं) सम्यक्चारित्र (देव) देव, परमात्मा (च) और (परम देव) सिद्ध परमात्मा (सुद्धं च) शुद्ध स्वभाव, निज शुद्धात्मा (गुरं) गुरू (च) और (परम गुरूव) अरिहन्त तीर्थंकर परमात्मा (धर्म) धर्म (च) और (परमधर्म) मोक्ष स्वरूप (सभावं) निज स्वभाव ही है। विशेषार्थ- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र मयी निज आत्मा सदैव शिव स्वरूप है। निज शुद्धात्मा ही निश्चय से देव और परम देव है। निज श्री कमलबत्तीसी जी अन्तरात्मा गुरू और परम गुरू है तथा अपना शुद्ध स्वभाव ही धर्म और परम धर्म है। देव, गुरू, धर्म मयी निज शुद्धात्मा सहज चिदविलासी है, जो सदा चैतन्य में विहार करता है। यह कार्य समयसार स्वरूप चिदानंदमयी परमात्मा मैं स्वयं ही हूँ। सर्वज्ञ जिनेन्द्र देव ने जिस आत्मा को ध्रुव कहा है, उसका जो जीव अवलम्बन ले उसे उस धुव स्वभाव में से शुद्धता प्रगट होती है। जिसके ज्ञान में तीनकाल और तीन लोक को जानने वाले भगवान बैठे हों. उसके भव होता ही नहीं है क्योंकि उसका ज्ञान सर्वज्ञ स्वभाव में ढला है। भगवान जिसके हृदय में विराजते हैं, उसका चैतन्य शरीर राग-द्वेष रूपी जंग से रहित हो जाता है। उसने यह जान लिया कि - मैं आतम शबातम, परमातम सिख समान। शायकशान स्वभावी चेतन, चिदानंद भगवान॥ ऐसे ज्ञानी को जगत की किसी भी वस्तु में रूचि नहीं होती, रस नहीं आता, निज स्वभाव के जितने विकल्प और बाह्य ज्ञेय हैं उन सभी का रस टूट जाता है। जो परम पारिणामिक भाव रूप है, अखंड चैतन्य ज्योति स्वरूप परम ब्रह्म परमात्मा है, ऐसे निज चैतन्य स्वरूप की जिसे महिमा है उसे सम्यग्दृष्टि कहते हैं और उसे दया, दान, आदि का राग, व्यवहार रत्नत्रय का शुभ राग और पर परमात्मा व उनके फल की महिमा नहीं होती। कोई पर परमात्मा देव, गुरू, धर्म बाहर में पर का कुछ नहीं कर सकते. प्रत्येक जीव अपने में परिपूर्ण, स्वतंत्र स्वयं परमात्मा है । पर के आश्रय से कभी धर्म होता ही नहीं है। जिनेन्द्र परमात्मा की देशना में आया है कि प्रत्येक द्रव्य, स्वतंत्र है, एक द्रव्य, दूसरे द्रव्य का कुछ नहीं करता, कर भी नहीं सकता। आत्मा ज्ञान स्वभावी प्रभु स्वयं परमात्मा है। ऐसा जिसके ज्ञान में आता है, वह ज्ञानी जीव-जीवन में स्थिर हो जाता है। ज्ञायक ध्रुव शुद्ध तत्व है, उसका ज्ञान करना, उसकी प्रतीति करना ही मुक्ति मार्ग है, इसी से आत्मा-परमात्मा होता है। अपने देवत्व स्वरूप का श्रद्धान होना ही धर्म है और धर्म मार्ग पर चलना और स्वरूप की साधना करना ही गुरूपना है। त्रिकाली ध्रुव स्वभाव शुद्धात्मा को पकड़ने पर ही सम्यक्दर्शन, ज्ञान होता है। किसी बाह्य आडम्बर, 3 .
SR No.009717
Book TitleKamal Battisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGyanand Swami
PublisherBramhanand Ashram
Publication Year1999
Total Pages113
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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