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श्री कमलबत्तीसी जी बंधता है।
सद्गुरू तारण स्वामी कहते हैं कि मन को शांत नहीं करना, स्वयं शांत होना है । भाव-विभावों को नहीं बदलना है, स्वयं निज स्वभाव में रहना है। यह मन आदि तो स्वयं ही नाशवान हैं। जैसे आकाश में बादल दिखाई देते हैं लेकिन थोड़े समय में सब अपने आप विला जाते हैं। ऐसे ही यह मन, संसारी भाव भी सब नाशवान विला जाने वाले हैं। तुम इन्हें मत देखो, अपने भेवज्ञान-तत्व निर्णय के बल से अपने शव स्वभाव, ममल भाव में लीन रहो, यही मुक्ति मार्ग है।
ज्ञानी अपने निज के निश्चय सम्यक्त्व सहित होने से नवीन कर्मों का संवर करता हुआ तथा पूर्व में स्व-अपराध से बांधे हुए कर्मों को अपने निर्जरा योग्य परिणामों के उठान से क्षय करता हुआ वह सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं स्वानुभवोत्पन्न, अत्यन्त आनंद के रस से भरा हुआ, आदि अंत और मध्यभाव से रहित ज्ञानमय होकर अर्थात् आनंद में होकर नृत्य करता है।
भाव-विभाव, क्रिया, यह सब कर्मोदय जन्य पुद्गल का ही परिणमन है। आत्मा इनसे सर्वथा भिन्न असंग और निर्लिप्त है। साधक को ऐसा स्पष्ट समझ लेना चाहिए कि सम्पूर्ण विकार क्रियायें और पदार्थादि कर्मोदय जन्य पौद्गलिक परिणमन है तथा मन, बुद्धि, इन्द्रियां आदि भी कर्मोदय जन्य ही हैं। अत: इनके द्वारा जो चेष्टायें हो रही हैं, वे न तो मुझमें हैं,न मेरी हैं और न मेरे लिए ही हैं। वास्तविक निज स्वरूप ध्रुव स्वभाव ज्ञायक भाव में कोई चेष्टा है ही नहीं, जिस शरीर में रह रहे हैं उसी में संपूर्ण चेष्टायें हो रही हैं। अपना सत्स्वरूप तो इनसे सर्वथा भिन्न है और यह सब क्रियायें, चेष्टायें, असत्, क्षणभंगुर नाशवान हैं।
साधकों से प्राय: यह बड़ी भूल होती है कि सुनते-पढ़ते और विचार करते समय वे जिस बात को ठीक सत्य समझते हैं उस पर भी दृढता से स्थित नहीं रहते तथा उसे विशेष महत्व नहीं देते। इस असावधानी के कारण ही वे अपने मार्ग में आगे नहीं बढ़ पाते। अत: अपने लक्ष्य की ओर शीघ्रता पूर्वक अग्रसर होने के लिए साधकों को चाहिए कि वे पढ़ने-सुनने और विचार करने पर जब यह जान लें कि शरीर से आत्मा पृथक् है, तब इस बात पर दृढ़ता से स्थिर रहें।
अपनी इस जानकारी को विशेष महत्व देते हुए कभी किसी अवस्था में भी शरीर मैं हूँ, ऐसा न माने, मैं एक अखंड अविनाशी चैतन्य तत्व भगवान आत्मा
श्री कमलबत्तीसी जी हूं, ऐसी ही दृढ प्रतीति रखें। यदि कभी शरीर के साथ एकता मालूम पड़े तो उसका आदर न करे, उसे महत्व न दे एवं इस बात को सत्य तो माने ही नहीं. केवल विवेक की कमी, के कारण ऐसा मालूम पड़ता है। अत: उसकी उपेक्षा करने से, भिन्नता का अनुभव हो जाता है। यदि भूल से पुनः शरीर मैं हूँ ऐसा मानता रहता है तो उसे केवल बौद्धिक ज्ञान हो सकता है, जिससे वह अन्य को कह सकता है किन्तु स्वयं को तत्व का अनुभव नहीं होता। __ साधक प्रथम भूमिका में शरीरादि को तो अपने से पृथक् मान लेता है किन्तु शरीर एवं इन्द्रियों द्वारा होने वाली खाना-पीना,सोना, देखना-सुनना, बोलना, चलना-फिरना आदि क्रियाओं को तथा मन से होने वाले चिन्तन
और बुद्धि से होने वाले निर्णय को अपनी क्रिया मानता रहता है। इधर ध्यान ही नहीं देता कि जब शरीरादि सब पर हैं, ज्ञेय हैं तो फिर इनके द्वारा होने वाली क्रियायें भी तो पर हैं, ज्ञेय हैं, वह स्वयं में कहां हैं?
शरीर, इन्द्रियां, मन, बुद्धि के द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियायें पृथक्, भिन्न ज्ञेय ही हैं तथा जीवात्मा स्वयं इनसे सर्वथा निर्लिप्त, असम्बद्ध और पृथक् है।
स्वयं जीवात्मा शरीर, इन्द्रियों, मन, बुद्धि से अत्यन्त सूक्ष्म और श्रेष्ठ होने के कारण निरपेक्ष दृष्टा है अर्थात् दूसरे किसी की सहायता की अपेक्षा न रखकर स्वयं ही देखने जानने वाला है। ___ अखंड आनंद का नाथ प्रभु आत्मा है, जो उसे जाने बिना ही गुण-गुणी के विकल्प में मग्न हैं वे व्यवहार में ही मग्न हैं। संसार के पाप भावों में अथवा दया-दान आदि भावों में अटके हुए जीवों की बात तो दूर परंतु लक्षण-लक्ष्य
और गुण-गुणी के विकल्पों में भी अटके रहने तक वे व्यवहार में ही मग्न हैं तथा जो मन में उलझे हुए हैं उन्होंने अभी वस्तु स्वरूप को जाना ही नहीं है।
राग-द्वेष रूप विकार भाव यह सब आत्मा से भिन्न क्षय होने वाले हैं। मोक्षार्थी पुरूष को तो अपने आत्म स्वरूप को जानना और ममल स्वभाव, ज्ञान भाव में रहना यही इष्ट प्रयोजनीय है, आत्मा तो चैतन्य रत्नाकर है। पुण्य-पाप रूप विकारी भावों से भिन्न होकर सर्व प्रथम ज्ञायक सच्चिदानंद प्रभु को जानो।
आत्मा को सदा ही ऊर्ध्व अर्थात् मुख्य रखना चाहिए। चाहे जैसा प्रसंग आये तो भी ध्रुव स्वभाव को मुख्य रखना।शुभाशुभ परिणाम भले ही आयें पर नित्य ध्रुव स्वभाव का ध्येय रखना, आत्मा को मुख्य रखने पर जो दशा होती