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श्री कमलबत्तीसी जी है, वह निर्मल दशा साधन कहलाती है और उसका ध्येय केवलज्ञान करना है
और उसका ध्येय पूर्ण आत्मा है। कषाय की मंदता अथवा क्षयोपशम ज्ञान के विकास की मुख्यता होगी तो दृष्टि संयोग पर जायेगी और वहां मन आदि दिखाई देंगे, आत्मा की उर्ध्वता की रूचि और जिज्ञासा हो और वह अनुभव में आये तब व्यक्त प्रगट उर्ध्वता होती है।
क्षणभंगुर संयोग के लक्ष्य से होने वाले परिणाम क्षण में पलट जाते हैं, क्षय हो जाते हैं, विला जाते हैं, पर जब शाश्वत आत्मा का लक्ष्य करें तब परिणाम शुद्ध होते हैं और यह शुद्ध परिणाम शुद्ध रूप से शाश्वत बने रहते हैं । आनंद स्वरूप भगवान आत्मा का अद्भुत आश्चर्यकारी और गहन स्वभाव है। इस स्वभाव का लक्ष्य करना और इस मय ही रहना मुक्ति का मार्ग है।
मन के अंदर ही भगवान पूर्णानंद का नाथ विराजमान है। वह सर्वोत्कृष्ट आश्चर्यकारी है। स्वयं का सर्वोत्कृष्ट भगवान आत्मा केवलज्ञान और सिद्ध की पर्याय से भी सर्वोत्कृष्ट है क्योंकि अरिहन्त, सिद्ध दशा तो एक समय की पर्याय है और आत्मा तो अनन्त सिद्ध पर्याय जिसमें से प्रगट होती हैं ऐसा द्रव्य है, वह सर्वोत्कृष्ट परमेष्ठी है। अपरिमित, अमर्यादित, ज्ञान दर्शन आदि अनंत शक्तियों का पिंड सर्वोत्कृष्ट आत्मा है। सर्वोत्कृष्ट निज तत्व को जो दृष्टि स्वीकार करती है वह शुद्ध दृष्टि है।
जो छूट जाती है वह तो तुच्छ वस्तु है । मन, शरीर, वाणी. संयोग, भाव-विभाव यह सब छूट जाने वाले हैं। सब क्षणभंगुर, नाशवान हैं। संयोग का लक्ष्य छोड़ दो और निर्विकल्प एक रूप शुद्ध तत्व है, उसका आश्रय लो, त्रिकाली ध्रुव स्वभाव सो मैं हूँ, ऐसा आश्रय करो। गुण-गुणी के भेद का भी लक्ष्य छोड़कर एक रूप गुणी की दृष्टि करने से समता शांति, आनंद, मिलेगा सब विकल्प-दु:खों का नाश होगा।
एक चैतन्य वस्तु ध्रुव है, उसमें दृष्टि देने से मुक्ति का मार्ग प्रगट होगा। अभेद वस्तु, ममल स्वभाव जिसमें गुण-गुणी के भेद का भी अभाव है, उसमें लीन होने पर धर्म होगा, मन और रागादि भावों से छूटने का मार्ग मिलेगा। __ मन, शरीर, संयोग यह तो क्षणभंगुर हैं, अनंत बार मिले और छूटे हैं। बाहर में जो सर्वस्व माना है यही अज्ञान मिथ्यात्व है, इसे पलट कर अब ऐसा दृढ श्रद्धान, ज्ञान करना कि अनन्त गुण का पिंड आत्मा यही मेरा सर्वस्व है। भगवान पूर्णानंद का नाथ चैतन्य की जगमग ज्योति है, उस रूप परिणमन
श्री कमलबत्तीसी जी हो, वही जीव का जीवन है। ___ अंतरंग में सदा ही जगमग ज्योति प्रकाशमान, अविनश्वर स्वत: सिद्ध तथा परमार्थ सत् परम पदार्थ, ऐसा भगवान आत्मा ज्ञान स्वभाव है। उसके अवलम्बन से इन्द्रियों को मन को जीतना अर्थात इनसे अपने को भिन्न जानना
और इनसे किसी से भी भयभीत भ्रमित न होना ही इनको जीतना है, वहीं जितेन्द्रिय है।
जड़ शरीर, खंड-खंड ज्ञान रूप मन और बद्धि तथा पांचों इंद्रियों के विषय भूत पदार्थ, इन तीनों का लक्ष्य छोड़कर निज आत्मा में एकाग्रता करना, यही मोक्ष गमन का कारण, मुक्ति मार्ग है।
ज्ञानी को यथार्थ द्रव्य दृष्टि प्रगट होती है, वह द्रव्य के आलम्बन द्वारा अंतर- स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता जाता है परन्तु जब तक अपूर्ण दशा है, पूर्ण रूप से शुद्ध स्वरूप में स्थिर नहीं होता वहां उसे वैराग्य भाव होते हैं। संसार, शरीर, भोगों से छूटता है और जन रंजन राग, कलरंजन दोष, मनरंजन गारव से भी छूटता है, अपने ज्ञान-विज्ञान बल से अपनी साधना में रत रहता है।
प्रश्न-यह जनरंजन राग, कल रंजन दोष, मन रंजन गारव, क्या हैं और इनसे ज्ञानी को कैसा वैराग्य आता है? इसके समाधान में सद्गुरू श्रीमद् जिन तारण स्वामी आगे गाथा कहते हैं
गाथा-८ वैराग तिविह उवन्न, जनरंजन रागभाव गलिय च । कलरंजन दोस विमुक्कं, मनरंजन गारवेन तिक्तं च ॥
शब्दार्थ-(वैराग) वैराग्य (तिविह) तीन प्रकार, त्रिविधि (उवन्न) उत्पन्न होता है (जनरंजन) लोगों को खुश करना, प्रसन्न रखना, संसारी अपेक्षा (रागभाव) राग भाव, पर दृष्टि, यही बंध का कारण है (गलियं च) गल जाते हैं (कलरंजन) शरीर का रंजायमानपना, सुखियापना, शरीराशक्ति (दोस) यह दुष्प्रवृत्ति है, द्वेष रूप है (विमुक्कं) छूट जाता है, विमुक्त होना (मनरंजन) मन का रंजायमानपना, मन की इच्छाओं की पूर्ति करना, मनमानी, मायाचारी, (गारवेन) यह गारव है, मद-मान (तिक्तं) त्याग करना, छूट जाना, (च) और । विशेषार्थ- आत्मानुभवी ज्ञानी को तीन प्रकार का वैराग्य उत्पन्न हो जाता