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श्री कमलबत्तीसी जी ज्ञान के प्रकाश में प्रकाशित होते हैं वह ज्ञान नित्य निरंतर अखंड एक रस रहता है, उसी को अपना स्वरूप समझकर अभिन्न भाव से नित्य निरंतर स्थित रहना तत्व ज्ञान है।
परमात्म तत्व कभी बदलता नहीं है, वह अटल ध्रुव नित्य शाश्वत है। साधक का लक्ष्य यदि पल-पल बदलते हए पर पर्याय संसार से हटकर केवल इस अटल ध्रुव तत्व पर केन्द्रित हो जाये तो उसे अविलम्ब परमात्म तत्व से अभिन्नता का बोध हो सकता है क्योंकि तत्व से तो पहले से ही अभिन्न है, केवल भूल से परिवर्तनशील और अनित्य की अर्थात संसार की ओर अभिमुख हो वह अपने आपको चलायमान, संसारी मानने लगा, अचल ध्रुव तत्व में स्वाभाविक स्थिति होने से यह भूल दूर हो सकती है।
यश प्रतिष्ठा आदि की कामना, दम्भ, हिंसा, क्रोध, कुटिलता, द्रोह, अपवित्रता, अस्थिरता, इन्द्रियों की लोलुपता, राग, अहंकार, आसक्ति, ममता, विषमता, अश्रद्धा और कुसंग आदि दोष जीवन का पतन करने वाले हैं, इनके रहते हुए विशुद्ध तत्व का ज्ञान नहीं हो सकता।
क्रिया मात्र कर्म बंध का कारण है और समस्त क्रियायें कर्मोदय जन्य कर्म प्रकृति द्वारा पुद्गल में हो रही हैं। इनमें जो जीव अपने को इनका कर्ता मानता है वह कर्म से बंधता है और भेदज्ञान-पूर्वक जो जीव भिन्न अकर्ता रहता है वह कर्म बंध से छुटता है और जो अपने स्वभाव में लीन हो जाता है। वह पूर्ण मुक्त हो जाता है।
इस प्रकार जीव के अज्ञान, मिथ्यात्व के कारण अनादि से कर्मादि का निमित्त-नैमित्तिक संबंध है । सम्यकदर्शन, सम्यकज्ञान होने पर कर्तापन
और निमित्त-नैमित्तिक संबंध छूट जाता है। सम्यक्चारित्र से मुक्त हो जाता है।
वर्तमान कर्म संयोग में अनुकूल या प्रतिकूल प्राणी, पदार्थ, परिस्थिति और घटना आदि के संयोग-वियोग में, मन में हलचल न होना ही साधक की सम्यकचारित्र की स्थिति है।
प्रश्न- यह मन तो बड़ा चंचल रहता है, जरा-जरा से उसमें नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करता है. इसके शांत करने का क्या उपाय है? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं -
श्री कमलबत्तीसी जी
गाथा-७ मन सुभाव संषिपन, संसारे सरनि भाव विपन च । न्यान बलेन विसुद्ध, अन्मोयं ममल मुक्ति गमनं च॥
शब्दार्थ- (मन सुभाव) मन का स्वभाव (संषिपन) स्वयं क्षय होने का है। मन, मोहनीय-कर्मोदय जन्य पर्याय है, पर्याय एक समय की होती है, नाशवान है (संसारे) संसार में (सरनि भाव) परिभ्रमण कराने वाले रागादि विकारी भाव (षिपनं) क्षय हो जाते हैं, विला जाते हैं (च) और (न्यान बलेन) ज्ञान के बल से (विसुद्ध) अपने शुद्ध स्वभाव, (अन्मोयं) लीन रहो (ममल) ममल स्वभाव (मुक्ति गमन) मोक्ष जाने का रास्ता (च) और।
विशेषार्थ- मन का स्वभाव नाशवान क्षय होने का है और चार गति, पंच परावर्तन रूप संसार में परिभ्रमण कराने वाले यह रागादि विकारी भाव भी क्षय हो जाते हैं, विला जाने वाले हैं इनको शुद्ध नहीं करना, मन को शांत नहीं करना, तुम अपने ज्ञान के बल से अपने शुद्ध स्वभाव, ममल भाव में लीन रहो। यही मुक्ति मार्ग है। ___ अनादि से जीव की कर्ता बुद्धि रही, कुछ न कुछ करना चाहता है, शरीर की क्रिया, व्रत संयम तप आदि का कर्ता बनता है, मन आदि को शांत करना चाहता है पर भाई, यह तेरे हैं कहां? तू शरीर, इन्द्रियां, मन बुद्धि से रहित मात्र चैतन्य ज्योति ज्ञायक स्वभावी भगवान आत्मा है, मन को शुद्ध करने शांत करने का भाव ही अज्ञान, मिथ्यात्व है। शरीरादि मन का स्वभाव तो स्वयं नाशवान है। वह रहने वाले ही नहीं है । तेरे अज्ञान, मिथ्यात्व से तू उन्हें पकड़े है, यही तेरा बंधन है, तू अपने ज्ञान बल से अपने शुद्ध स्वभाव, ममल भाव में शांत, शून्य निर्विकल्प समाधिस्थ लीन रहे, यही मुक्ति मार्ग है।
जहां चैतन्य प्रभु, अपने स्वभाव में आ गया, वहां बाहर कुछ है ही नहीं, यह चैतन्य के प्रकाश में दिखने वाले मन आदि भाव विभाव भ्रम हैं और यह शरीरादि पौद्गलिक जगत भ्रांति है, इनका अस्तित्व, सत्ता ही क्या है ? यह तो सब क्षणभंगुर नाशवान हैं । जैसे-धूप में पानी का भ्रम-मृग मरीचिका दिखती है, है क्या ? वैसे ही यह मन, मोह-माया से ग्रसित क्षणभंगुर नाशवान विचारों का प्रवाह है। एक भ्रम है जो दिखता है पर वास्तविकता क्या है ? ऐसे ही यह संसारी मोह-माया,राग-द्वेषादि भाव भी विला जाने वाले हैं। अज्ञानी जीव इन्हें पकड़ता है, अपने मानता है, कर्ता बनता है इसीलिए कर्म बंधन से