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श्री कमलबत्तीसी जी उसके आश्रय से जो निर्मलता प्रगट होती है वह अंश है। साधक जीव को अंशी का आश्रय होता है, अंश का नहीं। उसे अपने शुद्ध अखंड एक परम पारिणामिक भाव स्वरूप निज कारण परमात्मा का ही निरन्तर अवलम्बन वर्तता है। निज धुव तत्व शुद्धात्मा के आश्रय से धर्म कहो, शांति कहो, मुक्ति कहो, आत्मा-परमात्मा कहो, यह सब प्रगट होता है।
प्रश्न-इस परमात्म स्वरूप मोक्ष की उपलब्धि, साधना का मार्ग क्या है? इसके समाधान में सद्गुरू आगे गाथा कहते हैं
गाथा-२ जिनवयनं सद्दहनं, कमलसिरि कमल भाव उववन्न । अर्जिक भाव सउत्त, ईर्ज सभाव मुक्ति गमनं च ॥
शब्दार्थ- (जिन वयन) जिनेन्द्र के वचनों का, जिनवाणी का (सद्दहन) श्रद्धान करो (कमलसिरि) कमलश्री (श्री कमलावतीजी) अथवा हे आत्मन् (कमल भाव) जल से अलिप्त कमल वत्, निर्विकारी न्यारा ज्ञायक भाव (उववन्न) प्रगट करो (अर्जिक भाव) आर्यिका के भाव अथवा सरल स्वभाव (सउत्तं) से संयुक्त होकर लीन रहो (ईज) सरल सहज (सभाव) स्वभाव (मुक्ति गमनं) मुक्ति मार्ग, मोक्ष जाने का मार्ग (च)और।
विशेषार्थ-हे आत्मन कमलश्री! जिनेन्द्र के वचनों का श्रद्धान कर अपना कमलवत् निर्विकारी न्यारा ज्ञायक भाव प्रगट करो। आर्यिका साधु पद के भाव जगाकर सरल स्वभाव में रहो। सहज स्वभाव हो जाना ही मुक्ति मार्ग है।
सद्गुरू तारण स्वामी कहते हैं कि हे कमल श्री (आत्मा)! अब सब जान समझ लिया है। सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान हो गया है तो जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों का श्रद्धान करो और स्वयं परमात्मा बनो। अपना कमल भाव प्रगट करो, सरल स्वभाव में लीन रहो। साधु पद आर्यिका के भाव करो, सहज स्वभाव में रहो, यही मुक्ति का मार्ग है।
जीव अपनी लगन से ज्ञायक परिणति को प्राप्त करता है, मैं ज्ञायक हूँ, मैं विभाव भाव से भिन्न हूँ, किसी भी पर्याय में अटकने वाला मैं नहीं हूँ। मैं अगाध गुणों से भरा हूँ,मैं ध्रुव हूँ,शुद्ध हूँ , परम पारिणामिक भाव हूँ। इस तरह से अनेक प्रकार के विचार सम्यक् प्रतीति की लगन वाले मुमुक्षु को आते
श्री कमलबत्तीसी जी रूचि का पोषण और तत्व का मंथन चैतन्य के साथ एकाकार हो जाये तो कार्य होता ही है। अनादि के अभ्यास से विभाव में ही परिणमन होता है उसे पलटकर आत्मा की ओर करना है। जो प्रथम उपयोग को पलटना चाहता है परन्तु अन्तरंग रूचि को नहीं पलटता उसे मार्ग का ख्याल नहीं है। प्रथम रूचि को पलटे तो उपयोग सहज ही पलट जायेगा।
ध्रुव तत्व में एकाग्रता से ही निर्मल पर्याय प्रगट होती है, विभाव का अभाव होता है। आत्मा को पहिचान कर स्वरूप रमणता का पुरुषार्थ करना ही मुक्ति मार्ग है और इसके लिए बाह्य विषयादि से निवृत्त होकर पापों से छूटकर ही स्वरूप रमणता होती है।
संयोगों के त्याग करने मात्र से कुछ नहीं होता। जब बाहर के हीनाधिक संयोगों का लक्ष्य छूट जाये, कषाय की मंदता तीव्रता का भी लक्ष्य छूट जाये और अपनी पर्याय चैतन्य वस्तु को लक्ष्य कर तद्रूप परिणमित हो यही यथार्थ त्याग है।
यह सहज सरल परिणति ज्ञायक कमल भाव साधु जीवन की प्रामाणिकता है। सर्वोत्कृष्ट महिमा का भंडार चैतन्य देव अनादि अनन्त परम पारिणामिक भाव में स्थित है इसलिये-द्रव्य दृष्टि करके अखंड एक ज्ञायक रूप वस्तु को लक्ष्य में लेकर उसका अवलम्बन करो, यही जिनेन्द्र परमात्मा की देशना है। आत्मा अनन्त गुणमय है परन्तु द्रव्य दृष्टि गुणों के भेदों का ग्रहण नहीं करती, वह तो एक अखंड त्रैकालिक ध्रुव स्वभाव को अभेद रूप से ग्रहण करती है। इसके आश्रय से ही सच्चा मुनिपना आता है। शांति और सुख परिणमित होता है, वीतरागता होती है, परमात्म पद और मुक्ति की प्राप्ति होती है।
जीव ने अनन्त काल में अनन्तबार सब कुछ किया किन्तु आत्मा को नहीं पहिचाना । देव, गुरू क्या कहते हैं, वह बराबर जिज्ञासा से सुनकर विचार करके जो आत्म अस्तित्व उसे ख्याल में लेकर निज स्वरूप में लीनता की जाये तो आत्मा पहिचानने में आये, परमात्मा की प्राप्ति हो।
पर से भिन्न ज्ञायक स्वभाव का निर्णय करके बारम्बार भेद ज्ञान का अभ्यास करते-करते मति श्रुत के विकल्प टूट जाते हैं। उपयोग गहराई में चला जाता है, वहाँ आत्मा के दर्शन होते हैं। ज्ञायक स्वभाव आत्मा का निर्णय करके मति, श्रुत ज्ञान का उपयोग जो बाह्य में जाता है उसे अन्तर में समेट लेना, बाहर जाते हुये उपयोग को ध्रुव तत्व के अवलम्बन द्वारा, बारम्बार अंतर में स्थिर करते रहना, यही सम्यक्चारित्र मोक्ष का मार्ग है।