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श्री कमलबत्तीसी जी
चारित्र का मतलब स्थिर होना, तदरूप रहना, पर कहाँ किसमें ? व्यवहारचारित्र, देह की क्रिया, वह तो जड़ है। पुण्य-पाप विकार हैं,शुद्ध चैतन्य स्वरूप की प्रतीति होने के बाद अन्तर में लीनता हो, स्वरूप में रमणता, आत्म स्थिरता वही सम्यक्चारित्र है और यह स्थिति होने पर उत्तम क्षमा मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य, ब्रह्मचर्य स्वयं प्रगट होते हैं,यही साधु पद से सिद्ध पद प्राप्त करने की विधि है।
बहुत से जीव विकल्प का अभाव करना चाहते हैं तथा स्थूल विकल्प अल्प हो जाने पर, विकल्प का अभाव मानते हैं परन्तु वास्तव में जिसका विकल्प का अभाव करने का लक्ष्य है उसका विकल्प का अभाव नहीं होता, वह अज्ञानी है। उसने वस्तु स्वरूप को नहीं जाना।
जिसमें विकल्प का ही अभाव है ऐसे शुद्ध चैतन्य व स्वभाव को लक्ष्य में लेकर एकाग्र होने से विकल्प का अभाव हो जाता है,वहाँ विकल्प ही नहीं।
पहले आत्म स्वभाव का श्रवण मनन कर उसे लक्ष्य में लिया है उसकी महिमा आई है तो उसमें अन्तर्मुख होने पर उसमें विकल्प है ही नहीं।
यदि आत्मा को शांति चाहिए तो वह शांति तो ऐसी होना चाहिये कि जो पूर्ण और सादि अनन्त काल तक रहे, उसे ही परम शांति कहते हैं और यह परम शांति पर्याय से दृष्टि हटाकर अपने ध्रुव स्वभाव में रहने पर ही होती है। इसमें केवलज्ञान की पर्याय का भी लक्ष्य नहीं है। पूर्व में जो पर्यायी परिणमन हुआ, वर्तमान में चल रहा है, भविष्य में चलेगा, वह कैसी शुद्धाशुद्ध पर्याय है, इसका भेद भी न देखना, द्रव्य और पर्याय का भी भेद न देखना, अखंड धुव तत्व पर दृष्टि रहना और ज्ञान में वस्तु स्वरूप का निर्णय रहना ही परम शान्ति का मूल है।
अज्ञानी, स्वभाव सन्मुखता का प्रयत्न नहीं करता अपितु राग के ही साधन पकड़ता है अत: उसका भ्रम दूर नहीं होता। यदि स्वभाव के आश्रय पूर्वक निर्णय करे तो उसकी भ्रमना दूर हो जाये, परिणामों में विशुद्धता आवे ।
जब तक पड़ा है भेद में त. भ्रम न तेरा जायेगा।
भ्रम-भेद सब मिट जायेगा,तब शान्ति अक्षय पायेगा। जिनेन्द्र परमात्मा द्वारा कथित वस्तु के स्वरूप को समझना, जिनवाणी में सम्यक् रूप से अवगाहन करना, सांगोपांग समझना और उस अनुसार स्वयं के स्वरूप, शक्ति को जानना । ज्ञान के अभ्यास से भेदज्ञान होता है और
श्री कमलबत्तीसी जी भेदज्ञान के अभ्यास से केवल ज्ञान होता है। जिसे तत्वज्ञान नहीं है उसका आचरण भी यथार्थ नहीं होता, इसलिये हे कमलश्री आत्मा)! अपने आपको देखो, कमल भाव प्रगट करो और निश्चय-व्यवहार के अनुसार अपने परिणामों में साधुता (आर्यिकापना) लाओ, सरल-सहज स्वभाव में रहना ही मुक्ति मार्ग है। इसी से जीवन में परम शान्ति,परमानन्द प्रगट होता है। जिसे मोक्ष प्रिय है, उसे मोक्ष के कारण भी प्रिय होना चाहिए।
सम्यवर्शन शान चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥ तत्वार्थ सूत्र अनादि अनन्त ऐसा जो एक निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप है, उसके स्व सन्मुख होकर आराधना करना वही परमात्मा होने का सच्चा उपाय हैऔर इसके लिये अपने ममल ज्ञान स्वभाव में लीन रहो यही परम पुरूषार्थ है।
श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज इसी बात को आगे गाथा में स्पष्ट करते हैं
गाथा-३ अन्मोय न्यान सहावं,रयन रयन सरूव विमल न्यानस्य। ममल ममल सहाव,न्यानं अन्मोय सिद्धि संपत्तं ॥
शब्दार्थ- (अन्मोयं) लीन रहो (न्यान सहावं) ज्ञान स्वभाव में (रयन) रत्न समान (रयन सरूव) रत्नत्रय स्वरूप (विमल) मल से रहित शद्ध निर्मल (न्यानस्य) ज्ञान का सूर्य आत्मा (ममलं) मल से रहित, शुद्ध निर्मल जिसमें कभी मल लगा ही नहीं, अनाद्यनिधन शुद्ध (ममल सहावं) ममल स्वभाव है (न्यानं) ज्ञान में (अन्मोय) लीन रहो (सिद्धि संपत्तं) सिद्धि की सम्पत्ति, मुक्ति सिद्ध पद परमानन्द दशा।
विशेषार्थ - हे आत्मन् ! अपने चैतन्य धाम शुद्ध ज्ञान स्वभाव में लीन रहो, यह रत्न के समान उज्जवल दैदीप्यमान रत्नत्रयमयी स्वयं का विमल ज्ञान स्वरूप है। इसी निर्विकारी अविनाशी चैतन्य ममल स्वभाव की निर्विकल्प अनुभूति से मुक्ति की प्राप्ति होती है इसलिये अपने ममल ज्ञान स्वभाव में लीन होकर सिद्धि मुक्ति की परमानन्दमयी परम सम्पदा पाओ, यही परम पुरूषार्थ
शुद्ध स्वरूप आत्मा में मानों विकार अन्दर प्रविष्ट हो गये ऐसा दिखाई देता है परन्तु ऐसा है नहीं। "आद्यं अनादि शुद्ध" आत्मा अनादि से शुद्ध है, चैतन्य द्रव्य सदा ही शुद्ध निर्मल विमल ममल स्वरूपी है। भेदज्ञान प्रगट