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श्री कमलबत्तीसी जी है उसे मैं नमस्कार करता हूं।
जो जीव ऐसे अपने परम पारिणामिक भाव का आश्रय लेता है वही तत्व और परमतत्व, परमात्मा के स्वरूपको जानता है, और वही परम जिन परमेष्ठी होता है।
ज्ञान स्वरूपी और अतीन्द्रिय आनंद स्वरूपी परमात्मा, अतीन्द्रिय ज्ञान और अतीन्द्रिय आनंद स्वरूपी होने से वह ज्ञान गुण द्वारा ही अनुभूत होने योग्य है। ज्ञान गुण के अतिरिक्त राग की क्रिया आदि अन्य कारणों द्वारा भगवान आत्मा नहीं जाना जाता । प्रश्न- सभी जीव भगवान आत्मा है-इसका क्या अर्थ है?
समाधान-प्रत्येक जीव अपने भाग्य का विधाता स्वयं भगवान है, इसीलिए तारण स्वामी का शुभ संदेश-तू स्वयं भगवान है।
श्रुतज्ञान के बल से प्रथम ज्ञान स्वभावी आत्मा का यथार्थ निर्णय करके मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के व्यापार को आत्म सन्मुख किया, वह व्यवहार है । सहज शुद्ध पारिणामिक भाव तो परिपूर्ण एक रूप है, वही परम तत्व परमात्मा है । पर्याय में अपूर्णता है, विकार है इसलिए प्रयास करने को रहता है । पर्याय दृष्टि की अपेक्षा साध्य-साधक के भेद पडते हैं। पर्याय दृष्टि से विकार और अपूर्णता है, उसे तत्वदृष्टि के बल से टालकर साधक जीव क्रमश: पूर्ण निर्मलता प्रगट करता है । आत्मा का भान करके स्वभाव में एकाग्रता होती है तब ही परमात्म रूप समयसार अनुभूत होता है, यही परम जिन परमेष्ठी मयी परमात्मा है।
प्रश्न- तत्व रूप जीव आत्मा और परम तत्व परमात्मा में क्या अंतर है?
समाधान-तत्व रूप जीवात्मा अभी कर्म संयोग से संसार में है. परमतत्व रूप परमात्मा सब कर्मादि संयोग से रहित पूर्ण शुद्ध मुक्त परमानंद मयी शाश्वत स्वरूप में रहते हैं। जो सशरीरी अरिहन्त और अशरीरी सिद्ध परमात्मा कहलाते हैं। पर यह तत्व और परमतत्व रूप आत्मा परमात्मा अलग-अलग नहीं हैं। आत्मा का परिपूर्ण शुद्ध स्वरूप ही परमात्मा है। जिन जीवों ने तत्व स्वरूप का श्रद्धान किया, वही परम तत्व की साधना करके परमात्मा हो सकते हैं क्योंकि प्रत्येक जीव आत्मा स्वभाव से परमात्मा है।
प्रश्न-जब सब जीव आत्मा स्वभाव से परमात्मा हैं तो फिर यह पंच परमेष्ठी आदि अरिहन्त सिद्ध परमात्मा की वंदना, स्तुति करने का क्या
श्री कमलबत्तीसी जी प्रयोजन है?
समाधान-जैसे कोई पथिक मार्ग भूलकर घोर जंगल में भटक रहा हो, उसे कोई सच्चा मार्ग बता देता है, तो वह उसका आभार मानता है, नमस्कार करता है, अपने स्थान पर पहुंच कर उसकी महिमा गाता है। इसी प्रकार यह जीव अनादि से अपने सत्स्वरूप को भूला संसार रूपी घोर वन में भटक रहा है, इसे साधु आचार्य सद्गुरू, अरिहन्त परमात्मा परम गुरू,तत्व का स्वरूप बताकर जीव को सचेत करते हैं और मुक्ति का सत्य मार्ग बताते हैं । सिद्ध परमात्मा का स्वरूप बताकर जीव को सचेत करते हैं। अपने सत्स्वरूप का बोध कराते हैं इसीलिये उनकी वन्दना भक्ति करते, महिमा गाते हैं लेकिन यह सच्चे देव, गुरू कुछ चाहते नहीं हैं, पूर्ण निस्पृह वीतरागी हैं, उस मार्ग पर चलते हुये, स्वयं आनन्द परमानन्द में होते हुये जीव को सच्चा सुखी आनन्दपरमानन्द में होने का उपाय सप्रमाण अपने जीवन के आचरण से बताते हैं। इनकी पूजा करने इनको भगवान परमात्मा मानकर इनसे अपना भला हो जायेगा या कोई संसारी कामना-वासना की पूर्ति हो जायेगी, ऐसा नहीं है। वह तो परिपूर्ण परमात्मा हो ही गये उन्हें तो कोई कामना वासना, किसी की कोई अपेक्षा है ही नहीं, करूणावश मार्ग बताया है, अब हम उनके बताये मार्ग पर चलकर उन जैसे बनें, यही उनकी सच्ची पूजा वंदना भक्ति है।
जो जाणदि अरहंतं, दव्वत्त गुणत्त पज्जयत्तेहिं ।
सो जाणदि अप्पाणं, तस्स मोहो खलु जादि लयं ॥ इस प्रकार तत्व और परम तत्व निज आत्मा परमात्म स्वरूप है। जो चैतन्य मयी सदैव शुद्ध परम पारिणामिक भाव का धारी स्वानुभूति में दिखता है, यही स्वयं का स्वभाव शुद्ध समयसार है, वीतरागी भावमयी अपना सिद्ध स्वरूप ही परम जिन और परमेष्ठी स्वरूप है, ऐसे देवों के परमदेव, निज शुद्धात्म देव को मैं नमस्कार करता हूँ।
आत्मा की निर्विकारी शबक्शा ही परमात्मा है। यह परमात्मा किसी अन्य देव, गुरू, शास्त्र के द्वारा बाहर से नहीं मिलता परन्तु निज शुब शायक आत्मा, व स्वभाव के ही आश्रय से प्रगट होता है। आत्मा ज्ञान और आनन्द आदि निर्मल गुणों का शाश्वत भंडार है। सत्समागम से श्रवण मनन द्वारा उसकी यथार्थ पहिचान करने पर आत्मा में से जो अतीन्द्रिय आनन्द युक्त पूर्ण शुद्ध दशा प्रगट होती है, वह परमात्मा है।
अनादि अनन्त एक रूप चैतन्य मूर्ति भगवान आत्मा वह अंशी है और