________________
श्री कमलबत्तीसी जी
ॐ नमः सिद्धं श्री कमलबत्तीसी जी
* मंगलाचरण* परमतत्व परमात्मा, निज शुद्धात्म स्वरूप । वंदन बारम्बार है, ध्रुव तत्व चिदूप ॥ ममल स्वभाव की लीनता,सम्यग्चारित्र होय । पाप विषय-कषाय अरू, सब कर्मों को खोय ।। निज स्वभाव अनुभूति युत, सम्यज्ञान महान । ज्ञायक ज्ञान स्वभाव से, बनता वह भगवान ।। महावीर की देशना, सत्य वस्तु का सार । जिनवाणी अनुसार ही, दरसाया गुरू तार ।। ज्ञानानंद स्वभाव का, करो नित्य पुरूषार्थ । पाओगे शिव सम्पदा, यही एक परमार्थ ॥ अब गुरुदेव प्रथम गाथा मंगलाचरण में वस्तु स्वरूप बताते हैं -
गाथा-१ तत्वं च परम तत्वं, परमप्पा परम भाव दरसीये । परम जिन परमिस्टी, नमामिहं परम देव देवस्या ॥ शब्दार्थ - (तत्वं) सार वस्तु, शुद्ध मूल वस्तु, जीव तत्व, आत्मा (च) और (परम तत्व) जो अत्यन्त गुप्त, सूक्ष्म, रहस्य मय (परमप्पा) परमात्मा (परम भाव) परम पारिणामिक भाव (दरसीये) दिखाता है, दर्शित होता है (परम जिनं) परम जिनेन्द्र परमात्मा, सिद्ध स्वरूप (परमिस्टी) परम इष्ट श्रेष्ठ, पंच परम पदधारी, अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी (नमामिहं) मैं नमस्कार करता हूँ (परम देव देवस्या) देवों के देव-इन्द्रों द्वारा पूज्य परमदेव परमात्मा।
विशेषार्थ-तत्व और परम तत्व परमात्मा है, जो परम भाव में दिखता है, ऐसे परम जिन परमेष्ठी स्वरूप, देवों के परम देव, परमात्मा को मैं नमस्कार
श्री कमलबत्तीसी जी करता हूँ।
तत्व शुद्ध वस्तु जीव तत्व आत्मा है और परम तत्व परमात्मा है। यह तत्व और परम तत्व परमात्मा कौन है, कहाँ है? यह तत्व और परम तत्व आत्मा और परमात्मा कहीं बाहर नहीं है, अपना ही शुद्ध चैतन्य स्वरूप जो परम पारिणामिक भाव रूप स्वानुभूति में दिखता दर्शित होता है। यह अन्य चार भाव औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक और औदयिक भावों से परे परम पारिणामिक भाव रूप है, जो स्वयं की अनुभूति गम्य है, यही परम शुद्ध दशा रूप परमात्मा है । मैं आत्मा शुद्ध हूँ, अशुद्ध हूँ , बद्ध हूँ , मुक्त हूँ, नित्य हूँ, अनित्य हूँ, एक हूँ, अनेक हूँ इत्यादि प्रकार से जिसने श्रुतज्ञान के द्वारा प्रथम अपने ज्ञान स्वभावी आत्मा का निर्णय किया है, ऐसे जीव को तत्व विचार के राग की जो वृत्ति उत्पन्न होती है, वह भी दु:खदायक है, आकुलता मय है। उक्त अनेक प्रकार के श्रुतज्ञान के भावों को मर्यादा में लेते हुये, मैं ऐसा हूँ और वैसा हूँ, ऐसे विचार को पुरूषार्थ द्वारा रोक कर पर की ओर झुकते उपयोग को अपनी ओर आकृष्ट कर नय पक्ष के आलम्बन से हो रहे राग के विकल्प को जो आत्म स्वभाव रस के भान द्वारा टालता हुआ, श्रुत ज्ञान को भी आत्म सन्मुख करता है, वह उस समय अत्यन्त विकल्प रहित होकर तत्काल निज रस के प्रगट होने वाले आदि, मध्य, अन्त आत्मा के परमानन्द स्वरूप परमात्मा का परम पारिणामिक भाव में वेदन दर्शन करता है। __ अशरीरी, अविकारी, निरंजन, शुद्धात्मा-जैसे सिद्ध भगवन्त, किसी के आलम्बन बिना स्वयमेव पूर्ण अतीन्द्रिय, ज्ञानानन्द स्वरूप से परिणमन करने वाले दिव्य सामर्थ वान देव हैं। वैसे ही सभी आत्माओं का स्वभाव है। ऐसा ही निरालम्बी ज्ञान और सुख स्वभाव रूप मैं हूँ ऐसा लक्ष्य में लेने पर ही जीव का उपयोग अतीन्द्रिय होकर उसकी पर्याय में ज्ञान और आनन्द खिल जाता है। पूर्व में कभी अनुभव में नहीं आई हुई चैतन्य शांति वेदन में आती है, इस तरह आनन्द का अगाध सागर उसके प्रतीति में, ज्ञान में और अनुभूति में आ जाता है। स्वयं का परम इष्ट परमात्म स्वरूप अनुभव में आता है।
जिनेन्द्र परमात्माओं द्वारा कथित सर्व तत्वज्ञान का सिरमौर जो शुद्ध द्रव्य सामान्य परम पारिणामिक भाव वह स्वानुभूति का आधार है, सम्यक्दर्शन का आश्रय है, मोक्षमार्ग का आलम्बन है। सर्व शुद्ध भावों का नाथ है। अनादि अनंत ऐसा जो एक निज शुद्ध चैतन्य स्वरूप है उसके स्व सन्मुख होकर आराधन करना,वही परमात्मा परमजिन, परमेष्ठी परम देवों का देव परमात्मा