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प्रश्न २ उवं हियं श्रियंकारं छटवीं गाथा में निज शुद्धात्मा को सच्चा देव गुरू शास्त्र धर्म किस
कारण से कहा है ?
उत्तर
प्रश्न ३ उत्तर
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इस गाथा में साधना की अपेक्षा निश्चय नय की प्रधानता से कथन किया है। अध्यात्मवादी, ज्ञान मार्ग के पथिक निश्चय से निज शुद्धात्मा को ही सच्चा देव मानते हैं । निज अन्तरात्मा को सच्चा गुरू मानते हैं। सुबुद्धि के जागरण (सुमति सुश्रुत ज्ञान) को जिनवाणी (शास्त्र) मानते हैं और अपना शुद्ध चैतन्य स्वभाव ही धर्म है।
क्या सम्यक्दृष्टि को सच्चे देव गुरू शास्त्र की भक्ति का भाव नहीं आता ? सम्यकदृष्टि को वीतरागी देव, गुरू, शास्त्र के प्रति भक्ति का प्रशस्त राग आता है। वह उनके गुणों का स्मरण करता है। उसका चित्त भक्ति भाव से ओतप्रोत रहता है। अन्तरंग में वीतराग स्वरूप निज शुद्धात्मा का लक्ष्य होता है । मुझमें ऐसे गुण कब प्रगट होवें, मैं भी कब ऐसे निर्विकल्प स्वानुभव का रसपान करूं, इस भावना से सच्चे देव गुरू शास्त्र के प्रति भक्ति का भाव आता है तथापि वह यह जानता है कि यह प्रशस्त राग है, धर्म नहीं है।
गाथा - ७
सम्यक् दृष्टि ज्ञानी गुणों का पूजक
वीज अंकुरनं सुद्धं, त्रिलोकं लोकितं धुवं ।
रत्नत्रयं मयं सुद्धं, पंडितो गुन पूजते ॥
अन्वयार्थ • (पंडितो) सम्यकदृष्टि ज्ञानी (सुद्ध) शुद्ध (बीज) पुरुषार्थ का (अंकुरनं) अंकुरण करके अर्थात् जाग्रत करके (त्रिलोक) तीनों लोकों को (लोकितं ) आलोकित करने वाले (धुवं ) धुव स्वभाव को देखता है [और ] ( रत्नत्रयं मयं) रत्नत्रय मयी (सुद्ध) शुद्ध आत्म (गुन) गुणों को (पूजते) पूजता है ।
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अर्थ- आत्मज्ञानी साधक शुद्ध पुरुषार्थ का अंकुरण करके अर्थात् शुद्ध पुरुषार्थ को जाग्रत करके ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक को आलोकित करने वाले ध्रुव स्वभाव को देखता है तथा स्वभाव के आश्रय पूर्वक रत्नत्रयमयी आत्मगुणों की पूजा करता है।
प्रश्न १- जीव का पुरुषार्थ कब जाग्रत होता है और उस पुरुषार्थ का फल क्या है ?
उत्तर
जब जीव भेदज्ञान पूर्वक सम्यग्दर्शन प्रगट करता है, तब जीव का पुरुषार्थ जाग्रत होता है। इस पुरुषार्थ का फल सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति है ।
प्रश्न २- ज्ञानी गुणों की पूजा क्यों करता है ?
उत्तर
आत्मा अनन्त गुणों का भण्डार है। उन गुणों को प्रगट करना ही ज्ञानी का लक्ष्य रहता है। इसलिये वह अनन्त गुणों मयी निज शुद्धात्मा की आराधना करता है। जिन्होंने अपने गुणों को प्रगट कर लिया है ऐसे सच्चे देव अरिहंत सिद्ध भगवान के अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त बल, सिद्ध के आठ गुण और वीतरागी सद्गुरू के रत्नत्रय गुणों की महिमा गाता है। ज्ञानी रत्नत्रयमयी गुणों को अपने में प्रगट करना चाहता है इसलिये वह गुणों की पूजा करता है ।