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________________ गाथा-४ स्वानुभव महिमा, गुरू उपासना का फल हियंकार न्यान उत्पन्न,उर्वकारं च विन्दते । अरहं सर्वन्य उक्तं च, अचष्य दरसन दिस्टते ॥ अन्वयार्थ - (अरहं ) वीतरागी अरिहंत (सर्वन्य) सर्वज्ञ परमात्मा (उक्तं) कहते हैं [जो जीव] (उवंकारं च) ॐकार स्वरूप शुद्धात्म तत्त्व का (विन्दते) अनुभव करते हैं (च) और (अचष्य दरसन) चिंतन मनन अनुभवन रूप अचक्षु दर्शन अर्थात् आत्मोन्मुखी द्रव्य दृष्टि से (दिस्टते) देखते हैं [उन्हें] (हियंकारं) अपने परमात्म स्वरूप का (न्यान) ज्ञान (उत्पन्न) उत्पन्न हो जाता है। अर्थ - वीतरागी अरिहंत सर्वज्ञ परमात्मा कहते हैं - जो जीव ॐकार स्वरूप शुद्धात्म तत्त्व का अनुभव करते हैं और चिंतन-मनन अनुभवन रूप अचक्षु दर्शन अर्थात् आत्मोन्मुखी द्रव्य दृष्टि से देखते हैं उन्हें अपने परमात्म स्वरूप का महिमामयी ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। प्रश्न १- 'हियंकारं न्यान उत्पन्न 'इस गाथा के अनुसार वीतरागी सर्वज्ञ परमात्मा ने क्या कहा है? उत्तर - वीतरागी अरिहन्त सर्वज्ञ परमात्मा ने कहा है कि निज आत्मा शुद्ध चिदानन्दमयी निर्विकार है। जो जीव ज्ञानमयी अन्तर चक्षु से देखते हैं, शुद्धात्म तत्त्व का अनुभवन करते हैं, उनको अपने परमात्म स्वरूप का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। प्रश्न २- परमात्म स्वरूप का ज्ञान उत्पन्न हो जाता है इसमें गुरू उपासना कैसे हुई? उत्तर - गुरु के प्रति सर्वस्व समर्पण की भावना को गुरु भक्ति कहते हैं। गुरु के अनुकूल प्रवर्तन करने को गुरु उपासना कहते हैं । अरिहंत परमात्मा की भक्ति, उनके गुणों की आराधना और स्वानुभव अंतर दृष्टि से अपने परमात्म स्वरूप का बोध होना ही सच्ची गुरू उपासना है। प्रश्न ३- ज्ञानी को अचक्षुदर्शन से आत्मदर्शन कैसे होता है? उत्तर - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन यह दर्शन के चार भेद हैं। इन चारों में मन से जो देखना है वह अचक्षुदर्शन है। आत्मा का अवलोकन छद्मस्थ अवस्था में मन से होता है और वह आत्मदर्शन मिथ्यात्व आदि सातों प्रकृतियों के उपशम, क्षय और क्षयोपशम पूर्वक होता है। इस तरह ज्ञानीजनों को अचक्षुदर्शन से आत्मदर्शन होता है। गाथा-५ ज्ञान मयी शास्त्र जिनवाणी की पूजा विधि मति श्रुतस्य संपूरनं, न्यानं पंच मयं धुवं । पंडितो सोपि जानन्ति, न्यानं सास्त्र स पूजते ॥ अन्वयार्थ - (पंडितो) सम्यक्दृष्टि ज्ञानी (संपूरन) सम्पूर्ण [क्षयोपशम प्रमाण] (मति श्रुतस्य) मति श्रुत ज्ञान के बल से (न्यानं पंचमयं) पंचम ज्ञानमयी (धुवं) ध्रुव स्वभाव को (जानन्ति) जानते हैं, अनुभव करते हैं (सोपि) वह ज्ञानी (न्यानं सास्त्र) ज्ञानमयी शास्त्र की (स पूजते) सम्यक् पूजा करते हैं।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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