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________________ प्रश्न ३- पंडित किसे कहते हैं? उत्तर - जो जीव सत्संग और भेदज्ञान द्वारा अपने सत्स्वरूप को जान लेता है। जिसे निजशुद्धात्मानुभूति पूर्वक तत्त्व निर्णय हो जाता है, जो स्वाभाविक जीवन जीता है वह पंडित ज्ञानी कहलाता है। प्रश्न ४- इस गाथा में कारण कार्य का कथन किस प्रकार घटित होता है? उत्तर - "उवं नम: विंदते जोगी, सिद्धं भवति सास्वतं" गाथा के प्रथम दो चरण में कारण कार्य की सिद्धि हुई है। प्रथम चरण में कहा है कि योगी उवं नम: अर्थात् ॐकार मयी सिद्ध स्वरूप का अनुभव करते हैं। यहां सिद्ध स्वरूप कारण है। दूसरे चरण में कहा है कि शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं। इस प्रकार द्वितीय चरण में सिद्ध स्वरूप की प्रगटता कार्य है। इस प्रकार इस गाथा में कारण कार्य का कथन घटित होता है। प्रश्न ५- पंडित कौन है, इस संदर्भ में आचार्य तारण स्वामी एवं अन्य जैनाचार्य क्या कहते हैं? उत्तर - पंडित की परिभाषा के संबंध में आचार्य तारण स्वामी जी एवं अन्य आचार्यों का कथन इस प्रकार है देवं च न्यान रूपेन, परमिस्टी च संजुतं । सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति स पंडिता ॥ देव जो ज्ञान स्वरूपी है और परमेष्ठी पद से संयुक्त है। वैसा ही मैं इस देह में विराजमान हूँ, जो ऐसा जानता है वह पंडित है। कर्म अस्ट विनिर्मुक्त,मुक्ति स्थानेषु तिस्टिते । सो अहं देह मध्येषु, यो जानाति स पंडिता ॥ जो आठों कर्मों से पूर्ण मुक्त शुद्ध सिद्ध परमात्मा लोक के अग्रभाग में तिष्ठते हैं, वैसा ही मैं इस देह में विराजमान हूँ जो ऐसा जानता है वह पंडित है। (आचार्य तारण स्वामी, श्रावकाचार गाथा-४२,४३) पण्डिय विवेय सुद्ध, विन्यानं न्यान सुद्ध उवएसं । संसार सरनि तिक्तं, कम्मक्खय विमल मुक्ति गमनं च ॥ जो विवेक से शुद्ध हैं,शुद्ध ज्ञान विज्ञान का उपदेश देते हैं, संसार के परिभ्रमण को त्याग कर कर्मों को क्षय कर विमल मुक्ति को प्राप्त करते हैं वह पंडित अर्थात् सम्यक्ज्ञानी हैं। (आचार्य तारण स्वामी, उपदेश शुद्ध सार गाथा-३२) देह विभिण्णउ णाणमउ, जो परमप्पु णिएइ । परम समाहि परिट्ठियउ, पंडिउ सो जि हवेइ ॥ जो परमात्मा को शरीर से भिन्न और केवलज्ञान से पूर्ण जानता है, वह परम समाधि में तिष्ठता हुआ अंतरात्मा अर्थात् विवेकी है,पंडित है। (श्री योगीन्दुदेव, परमात्म प्रकाश-१/१४) जो परियाणइ अप्पु परु जो पर भाव चएइ । सो पंडिउ अप्पा मुणह सो संसारु मुएइ ॥ जो परमात्मा को समझता है और परभाव का त्याग करता है उसे पंडित अंतरात्मा समझो। वह जीव संसार को त्याग देता है।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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