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(विधीयते) यही विधि है (सास्वतं) ऐसे शाश्वत (धुवं) ध्रुव स्वभाव को (नमस्कारं) नमस्कार है।
अर्थ - सम्यक्दृष्टि ज्ञानी परम शुद्ध निश्चय नय से जानते हैं कि मेरी आत्मा के गुण सिद्ध परमात्मा के समान शुद्ध हैं, ऐसा जानते हुए स्वभाव की साधना आराधना करते हैं, शुद्ध तत्त्व को प्राप्त करने की यही विधि है। प्रश्न १- ज्ञानीजन अपनी आत्मा को कैसा जानते हैं? उत्तर - ज्ञानीजन अपनी आत्मा को सिद्ध के समान शुद्ध कर्म रहित ज्ञानमयी चित्प्रकाशमान अनंत
गुण स्वरूपी जानते हैं। प्रश्न २- ज्ञानी किस प्रकार शुद्धात्म स्वरूप को नमस्कार करते हैं? उत्तर - ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा ही वंदनीय है। इसी की साधना से सिद्धत्व प्रगट होता है। ज्ञानीजन
अरिहंत सिद्ध परमात्मा के समान स्व स्वरूप में सम्यग्दर्शन ज्ञान पूर्वक लीन होते हैं। इस
प्रकार यथार्थ विधि से शुद्धात्म स्वरूप को नमस्कार करते हैं। प्रश्न ३- आत्मा महिमा मय तत्त्व है, फिर भी उपयोग अपने में क्यों नहीं लगता है? उत्तर - सिद्ध के समान निज ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा स्व - पर प्रकाशक चैतन्य स्वरूप अनंत गुणों का
भंडार है। ऐसा जानते हुए भी आत्महित की रुचि न होने से उपयोग अपने में नहीं लगता है। प्रश्न ४- आत्मा का बोध कब जागता है और मुक्ति मार्ग कैसे बनता है? उत्तर - स्वभाव की रुचि होने पर पाप विषय कषायों से अरुचि हो जाती है। इससे आत्म स्वरूप का
बोध होता है। इस तरह उपयोग के आत्मोन्मुखी होने से मुक्ति का मार्ग बनता है।
गाथा -३
सच्चे देव की पूजा विधि उवं नमः विदते जोगी,सिद्धं भवति सास्वत ।
पंडितो सोपि जानन्ते,देव पूजा विधीयते ॥ अन्वयार्थ - (जोगी) योगीजन (उर्व नमः) ओम नम: का (विंदते) अनुभव करते हैं और (सास्वतं) शाश्वत (सिद्ध) सिद्ध (भवति) हो जाते हैं (पंडितो) सम्यक्दृष्टि ज्ञानी (सोपि) वह भी [इस रहस्य को] (जानन्ते) जानते हैं (देव पूजा) देव पूजा की (विधीयते) यही विधि है।
अर्थ- आत्म रसिक वीतरागी योगीजन ओम् नमः अर्थात् निज शुद्धात्मा का निरंतर अनुभव करते हैं और स्वानुभूति में रत रहते हुए शाश्वत सिद्ध हो जाते हैं, सम्यक्दृष्टि ज्ञानी भी इस रहस्य को जानते हैं, वे अपने उपयोग को स्वभाव में लगाते हैं, देव पूजा की यही विधि है। प्रश्न १- उवं नम: का क्या अभिप्राय है? उत्तर - स्वानुभूति में ओंकारमयी सिद्ध स्वरूप के प्रति समर्पण ही उवं नम: का अभिप्राय है। प्रश्न २- योगी किसको कहते हैं? उत्तर - ऐसे साधु जो संसार शरीरादि संयोग से पूर्ण विरक्त होते हैं, जिनको व्यवहार में मन वचन
काय की एकता और स्थिरता होती है। निश्चय में जिनका उपयोग शुद्ध स्वभाव में लीन रहता है उन्हें योगी कहते हैं।