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गाथा-१ __सिद्ध प्रभु के समान निज शुद्धात्मा उर्वकारस्य ऊर्धस्य, ऊर्ध सद्भाव सास्वतं ।
विन्द स्थानेन तिस्टते, न्यानं मयं सास्वत धुवं ॥ अन्वयार्थ - (उर्वकारस्य) ॐकार के (ऊर्धस्य) ऊर्ध्ववर्ती बिन्दुवत् (ऊर्ध) ऊर्ध्वगमन (सद्भाव) स्वभाव द्वारा (सास्वत) शाश्वत (विन्द स्थानेन) विन्द स्थान में (तिस्टते) रहने वाला (न्यानं मयं) ज्ञानमयी (सास्वतं) अविनाशी (धुवं) ध्रुव स्वभाव जयवंत हो ।
अर्थ - ॐकार के ऊर्ध्ववर्ती बिन्दु के समान ऊर्ध्वगमन स्वभाव द्वारा शाश्वत विन्द स्थान में रहने वाला ज्ञानमयी अविनाशी ध्रुव स्वभाव अपने में सदा प्रकाशमान हो रहा है, ऐसा महिमामय सिद्ध स्वभाव सदा जयवंत हो। प्रश्न १ - उर्वकारस्य ऊर्धस्य इस प्रथम गाथा का अभिप्राय क्या है? उत्तर - आत्मा ऊँकारमयी पंच परमेष्ठी पद का धारी शुद्ध-बुद्ध ज्ञान स्वरूप है। जो जीव अपने शुद्ध
स्वभाव में लीन होकर ऊर्ध्व गमन करता है, वह त्रिकाली चैतन्य स्वभाव में लीन होकर निर्विकल्प मोक्ष सुख में सदा विराजता है, वही सिद्ध परमात्मा कहलाता है। उन्हीं सिद्ध
परमात्मा के समान महिमामय मेरा भी शुद्ध सत्स्वरूप है। प्रश्न २ - आत्मा ऊर्ध्वगमन कैसे करता है ? उत्तर - आत्मा स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करता है। जिस प्रकार -
१. मिट्टी के लेप से युक्त तुम्बी मिट्टी के लेप छूटने पर पानी में ऊपर की ओर गमन करती
२. कुम्हार के चाक पर रखी हुई मिट्टी हाथ लगाते ही ऊपर की ओर जाती है। ३. एरण्ड का बीज फली फूटते ही ऊपर की ओर जाता है। ४. अग्नि की शिखा जैसे स्वाभाविक रूप से ऊपर की ओर गमन करती है, इसी प्रकार आत्मा
भी स्वभाव से ऊर्ध्वगमन करता है। प्रश्न ३- आत्मा विंद स्थान में रहने वाला है इसका क्या तात्पर्य है? उत्तर - जिस प्रकार ॐ मंत्र में विन्दु सबसे ऊपर रहती है, इसी प्रकार आत्मा स्वभाव से निर्विकल्प
विन्द स्थान में रहने वाला सिद्ध के समान है।
गाथा-२
ध्रुव स्वभाव की वन्दना निरु निश्चै नय जानन्ते, सुद्ध तत्व विधीयते ।
ममात्मा गुनं सुद्ध, नमस्कार सास्वत धुवं ॥ अन्वयार्थ-(निरु निश्चै नय) परम शुद्ध निश्चय नय से [ज्ञानी] (जानन्ते) जानते हैं कि (ममात्मा) मेरी आत्मा के (गुन) गुण [सिद्ध के समान (सुद्ध) शुद्ध हैं (सद्ध तत्व) शुद्ध तत्त्व को प्राप्त करने की