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श्री पंडितपूजा जी
संक्षिप्त परिचय सम्यग्दर्शन होने पर ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है । सम्यग्ज्ञान की ही संज्ञा ज्ञान है। ज्ञान का सामान्य लक्षण बताते हुए आचार्यों ने कहा है - "जानाति ज्ञायतेऽनेन ज्ञाप्ति मात्र वा ज्ञानम्" जो जानता है वह ज्ञान है अथवा जिसके द्वारा जाना जाये वह ज्ञान है। जानना मात्र ज्ञान है। ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है क्योंकि वह ज्ञान स्वभावी है। ज्ञान जीव का विशेष गुण है जो स्व और पर दोनों को जानने में समर्थ है । वह पाँच प्रकार का है - मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान । अनादि काल से मोह का आवरण होने के कारण जीव स्व व पर में भेद नहीं देख पाता। शरीर आदि पर पदार्थों को ही निज स्वरूप मानता है इसी से मिथ्याज्ञान या अज्ञान नाम पाता है। सम्यक्त्व के प्रभाव से पर पदार्थों से भिन्न निज स्वरूप को जानने लगता है यही भेदज्ञान सम्यग्ज्ञान है।
सम्यग्ज्ञान ही जीव को परम इष्ट है। जीव स्वयं को स्वयं से जाने यह निश्चय सम्यग्ज्ञान है। उसको प्रगट करने में निमित्तभूत आगम ज्ञान व्यवहार सम्यग्ज्ञान कहलाता है। निश्चय सम्यग्ज्ञान ही वास्तव में मोक्ष का कारण है,व्यवहार सम्यग्ज्ञान नहीं।
आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने श्री पंडित पूजा जी ग्रंथ में चित्प्रकाश के स्वानुभव प्रमाण सम्यग्ज्ञान का प्रतिपादन किया है।
सम्यक्दृष्टि ज्ञानी सिद्ध परमात्मा के समान अपने चिद्रूप स्वभाव का वेदन करता है। शुद्ध स्वभाव में उपयोग स्थिर करता है, इस प्रकार निश्चय देव पूजा करता है। अपने अंतरात्मा को जाग्रत कर स्वयं के रत्नत्रय गुणों का वेदन करता है यही गुरू उपासना है। मति श्रुत ज्ञान के बल से पंचम केवलज्ञान मयी ज्ञान मात्र स्वभाव की अनुभूति सहित आराधना करता है यही ज्ञान मयी शास्त्र की पूजा है। ज्ञानी गुणों की पूजा करता है। सम्यग्ज्ञान के जल में स्नान कर, मिथ्यात्व, शल्य, कषाय, मन की चपलता आदि विकारों का प्रक्षालन करता है। धर्म रूप स्वभाव के वस्त्र, रत्नत्रय के आभरण, समता मयी मुद्रा की मुद्रिका और ज्ञानमयी ध्रुव स्वभाव का मुकुट धारण कर सम्यक्ज्ञानी दृष्टि की निर्मलता पूर्वक वीतराग भाव सहित निज शुद्धात्म देव का दर्शन करता है। ज्ञान मार्ग में यही ज्ञान पूर्वक देवाराधना की विधि है।
सम्यक्ज्ञानी द्रव्य स्वभाव की स्तुति करता है । स्वभाव का बहुमान जाग्रत हो ऐसी यथार्थ भक्ति करता है। निश्चय से उपयोग को स्वभाव के प्रति समर्पित कर निश्चय दान का सुख भोग करता है। भूमिकानुसार व्यवहार में पात्रों को दान भी देता है। सम्यकज्ञानी जानता है कि चार संघ के जीवों को स्व समय शुद्धात्मा ही प्रयोजनीय है। यही सर्व तत्त्वों का सार है। सम्यग्ज्ञान अंतरशोधन का मार्ग प्रशस्त करता है। विकारों एवं विपरीत मान्यताओं का परिमार्जन कर स्वभाव में स्थित करता है। चारित्र को प्रगट करता है। इस प्रकार पूज्य के समान आचरण को सच्ची पूजा कहते हैं।
श्री पंडित पूजा जी ग्रंथ में ऐसे असाधारण ज्ञान गुण की महिमा, सम्यक्ज्ञानी के द्वारा परमात्म पद की प्राप्ति हेतु की जाने वाली आध्यात्मिक पूजा विधि,आत्म साधना और अंतरशोधन के मार्ग का निश्चय-व्यवहार के समन्वय पूर्वक अदभुत विवेचन किया गया है।