________________
परम पद को प्राप्त करना जिनेन्द्र भगवान के उपदेश का शुद्ध सार है।
जिनेन्द्र भगवान के उपदेश का सार रूप वर्णन होने से इस ग्रन्थ को उपदेश शुद्ध सार कहते हैं। ज्ञान स्वभाव की साधना करना, जनरंजन राग, कलरंजन दोष, मनरंजन गारव से छूटने की विधि तथा अनेक विषयों का वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है।
३. श्री त्रिभंगीसार ग्रन्थ में ७१ गाथायें हैं। यह ग्रन्थ दो अध्यायों में विभाजित हैं। प्रथम अध्याय में १०८ प्रकार से होने वाले कर्म आस्रव का विवेचन है तथा द्वितीय अध्याय में १०८ प्रकार से कर्म आस्रव को रोकने वाले संवर रूप परिणामों का कथन है। तीन-तीन भावों को एक साथ कहने से इस ग्रन्थ को त्रिभंगीसार कहते हैं। जैसे - मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना, सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र आदि।
त्रिभंगीसार ग्रन्थ करणानुयोग का ग्रन्थ है। अपने परिणामों की हमेशा संभाल करना चाहिए, क्योंकि परिणाम ही बंध और परिणाम ही मुक्ति के कारण होते हैं। अशुद्ध भावों से बंध और शुद्ध भाव से मोक्ष की प्राप्ति होती है।
ममलमत परिचय आचार्य श्रीजिन तारण स्वामी जी ने पाँच मतों में चौदह ग्रन्थों की रचना की है। पाँच मतों में ममलमत चतुर्थ स्थान पर है। ममल मत का अर्थ है 'अपने उपयोग को ममल स्वभाव में स्थिर करने का पुरुषार्थ करना।' आत्मार्थी सम्यग्ज्ञानी साधक सम्यक्चारित्र धारण करता है। उपयोग की अपने स्वभाव में एकाग्रता होना सम्यक्चारित्र की सिद्धि का उपाय है। प्रबल वैराग्य भावनायें चारित्र में दृढ़ करती हैं। ममल मत के दो ग्रन्थों में इसी पुरुषार्थ की प्रमुखता है। चौबीसठाणा और ममलपाहुड ममलमत के ग्रन्थ हैं । जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
श्री चौबीसठाणा जी- इस ग्रन्थ में सत्ताईस गाथायें तथा शेष पाँच अध्याय गद्यमय हैं। चौबीसठाणा का अर्थ है चौबीस स्थान- गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी, आहार, गुणस्थान, जीव समास,पर्याप्ति,प्राण, संज्ञा, उपयोग, ध्यान, आस्रव, जाति और कुल कोटि यह चौबीस स्थान कहलाते हैं।
इन चौबीस स्थानों में अनन्त जीव राशि पाई जाती है। अज्ञान के कारण जीव संसार में रुल रहा है तथा अपने कर्म के अनुसार संसारी स्थानों को प्राप्त करता है।
श्री ममलपाड जी- इस ग्रंथ का नाम श्री भयषिपनिक ममलपाहुड है।
भय षिपनिक का अर्थ है-भयों को क्षय करने वाला । आचार्य श्रीमद् जिन तारण स्वामी को 'मिथ्याविली वर्ष ग्यारह श्री छद्मस्थवाणी ग्रंथ के इस सूत्रानुसार ग्यारह वर्ष की अवस्था में सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हुई। सम्यग्दर्शन होने पर इह लोक परलोक आदि सात भयों का अभाव हुआ। पुनश्च यह ग्रंथ भयों को क्षय करने वाला है - इसका आशय है कि सम्यक्दृष्टि ज्ञानी के अंतर में चारित्र मोहनीय कर्मोदय के निमित्त से होने वाले चारित्र गुण के विकार रूप भयों का क्षय हो इस उद्देश्य से आचार्य तारण स्वामी ने इस ग्रंथ की रचना की है।
ममल का अर्थ है त्रिकाली शुद्ध ध्रुव स्वभाव, जिसमें अतीत में कर्म मल नहीं थे, वर्तमान में नहीं हैं और भविष्य में कर्म मल नहीं होंगे, ऐसे परम शुद्ध स्वभाव को ममल कहते हैं। ग्रंथ में इसी अभिप्राय को व्यक्त करने के लिए ममलह ममल स्वभाव भी कहा गया है।