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पाठ-१ आचारमत, सारमत और ममलमत
आचार मतआचार मत का अर्थ है विवेक पूर्व आचरण करना । श्री श्रावकाचार जी आचार मत का ग्रन्थ है। इसमें ४६२ गाथायें हैं। श्रावक और मुनिधर्म की चर्या इस ग्रन्थ का प्रमुख विषय है। श्रावकाचार अविरत सम्यकदृष्टि के लिए कहा गया है। प्रथम १४ गाथाओं में मंगलाचरण किया है। जिसमें सच्चे देव, गुरू, शास्त्र का स्वरूप और गुणों सहित वन्दना है। संसार, शरीर, भोगों से वैराग्य, जीव के अनादिकालीन संसार में परिभ्रमण का कारण, सम्यग्दर्शन का विशद् वर्णन, तीन पात्रों का स्वरूप, त्रेपन क्रिया का विवेचन, ग्यारह प्रतिमाओं का कथन, पाँच पदवी, षट् आवश्यक एवं मुनि धर्म का वर्णन किया गया है।
चारित्र मानव जीवन की कसौटी है। सदाचारी मनुष्य उच्च और श्रेष्ठ होता है। चारित्र शून्य मनुष्य चलते फिरते मुर्दे के समान है। पाप, विषय और कषायों को करने से जीव को दुःख भोगना पड़ता है तथा यह भव और परभव दोनों बिगड़ जाते हैं।
आत्मश्रद्धान पूर्वक पापों का त्याग कर अणुव्रत महाव्रत धारण कर धर्म साधना करने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। इस प्रकार सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण चारित्र का पालन करना आचार मत का अभिप्राय है।
सारमतसारमत का अर्थ- भेदज्ञान, तत्त्व निर्णय पूर्वक अपनी सम्हाल करना।
सारमत का अभिप्राय - आत्मार्थी साधक अपने स्वरूप का आराधक होता है। वह भेदज्ञान, तत्त्वनिर्णय पूर्वक अपने स्वभाव का स्मरण रखता है, सार वस्तु को ग्रहण करता है यही सारमत का अभिप्राय
है।
सारमत में तीन ग्रन्थ हैं - ज्ञानसमुच्चयसार, उपदेशशुद्धसार और त्रिभंगीसार, जिनका संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है
१. श्री ज्ञानसमुच्चयसार ग्रन्थ में ९०८ गाथायें हैं। इस ग्रन्थ में द्वादशांग वाणी, पंच पदवी, आध्यात्मिक वर्णमाला, सत्ताईस तत्त्व, चौदह गुणस्थान, रत्नत्रय, चार ध्यान,पाँच आचार एवं अन्य अनेक विषयों का विशद् वर्णन किया गया है।
भेदज्ञान पूर्वक अपने स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान करना ज्ञानसमुच्चयसार है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। आत्मा ज्ञानमयी तत्त्व है। जो जीव भेदज्ञान पूर्वक अपने ज्ञान स्वभाव को जान लेते हैं, वे सम्यक्दृष्टि ज्ञानी कहलाते हैं। जो जीव स्व-पर को नहीं जानते, शरीर को ही आत्मा मानते हैं वे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि कहलाते हैं।
जो जीव जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर श्रद्धान कर निज को निज और पर को पर जानते हैं वे संसार सागर से पार हो जाते हैं। यही ज्ञान समुच्चय सार जी ग्रन्थराज का महान सन्देश है।
२.श्री उपदेशशुद्ध सार ग्रन्थ में ५८९ गाथायें हैं। साधक को साधना के मार्ग में आने वाली बाधाओं से बचने का उपाय इस ग्रन्थ में बताया गया है। संसार के परिभ्रमण से मुक्त होकर आनन्द परमानन्दमयी