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संघात का ग्रहण भी नहीं किया जाता, इस कारण १० प्रकृतियाँ ये भी कम हो जाती हैं। सम्यमिथ्यात्व तथा सम्यक्प्रकृति मिथ्यात्व इन २ प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता है; क्योंकि सम्यक्दृष्टि जीव पूर्वबद्ध मिथ्यात्व प्रकृति के तीन खण्ड करता है, तब इन २ प्रकृतियों का प्रादुर्भाव होता है। इस कारण २ प्रकृतियाँ ये भी कम हो जाती हैं। इस प्रकार
२८ प्रकृतियाँ कम करके बन्ध योग्य १२० प्रकृतियाँ मानी गईं हैं। प्रश्न ३३४- द्रव्यासव के कितने भेद हैं ? उत्तर - द्रव्यास्रव के दो भेद हैं - साम्परायिक आस्रव और ईर्यापथ आस्रव । प्रश्न ३३५- साम्परायिक आस्रव किसे कहते हैं? उत्तर - जीव के कषाय भावों के निमित्त से जो कर्म प्रकृतियाँ आत्मा में कुछ काल तक के लिये
स्थितिबंध को प्राप्त होती हैं उनके आस्रव को साम्परायिक आस्रव कहते हैं। प्रश्न ३३६ - ईर्यापथ आस्रव किसे कहते हैं ? उत्तर - जीव में मात्र योग के निमित्त जिन कर्म परमाणुओं का बन्ध, उदय और निर्जरा एक ही
समय में होती है उनके आस्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। प्रश्न ३३७- इन दोनों आसवों के स्वामी कौन-कौन है? उत्तर - साम्परायिक आस्रव का स्वामी कषायसहित जीव और ईर्यापथ आस्रव का स्वामी कषाय
रहित जीव होता है। प्रश्न ३३८ - पुण्यासव और पापासव का कारण क्या है? उत्तर - शुभयोग से पुण्यास्रव और अशुभयोग से पापास्रव होता है। प्रश्न ३३९- शुभयोग और अशुभयोग किसे कहते हैं? उत्तर - शुभ परिणाम से उत्पन्न योग को शुभ योग और अशुभ परिणाम से उत्पन्न योग को अशुभ
योग कहते हैं। प्रश्न ३४०- जिस समय जीव को शुभयोग होता है, उस समय पाप प्रकृतियों का आस्रव होता
है या नहीं? उत्तर - जिस समय जीव को शुभयोग होता है उस समय भी पाप प्रकृतियों का आस्रव होता है। प्रश्न ३४१- यदि शुभयोग के समय भी पापासव होता है तो शुभयोग पापासव का कारण ठहरा? उत्तर
- शुभयोग, पापासव का कारण नहीं है क्योंकि जिस समय जीव में शुभयोग होता है, उस
समय पुण्यप्रकृतियों में स्थिति अनुभाग अधिक होता है और पाप प्रकृतियों में कम; इसी प्रकार जब अशुभयोग होता है तब पापप्रकृतियों में स्थिति अनुभाग अधिक पड़ता है और पुण्यप्रकृतियों में कम । तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथ के छठवें अध्याय में ज्ञानावरणादि प्रकृतियों के आस्रव के कारण जो प्रदोष, निव, आदि कहे गये हैं, उसका अभिप्राय है कि उन भावों से उन-उन प्रकृतियों मे स्थिति अनुभाग अधिक- अधिक पड़ते हैं; अन्यथा जोज्ञानावरणादि पापप्रकृतियों का आस्रव दसवें गुणस्थान तक सिद्धान्त शास्त्र में कहा है, उससे विरोध आता है अथवा वहाँ शुभयोग के अभाव का प्रसङ्ग आता है क्योंकि शुभयोग दसवें गुणस्थान से पहले-पहले ही होता है।
॥ इति द्वितीयोऽध्यायः समाप्तः ॥