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________________ १७८ तीर्थंकर नाम कर्म का बन्ध होता है, यह प्रकृति एक बार बंधना शुरु होने पर निरन्तर बंधती रहती है। (- तत्वार्थसूत्र ६/२४) जो धर्मतीर्थ अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं, समवशरण आदि विभूतियों से सहित होते हैं और जिनके तीर्थंकर नामकर्म का उदय होता है उन्हें तीर्थंकर कहते हैं। भरत और ऐरावतक्षेत्र के चतुर्थकाल में २४ तीर्थंकर होते हैं तथा विदेहक्षेत्र में सदाकाल कम से कम २० और अधिक से अधिक १६० तीर्थंकर होते हैं। वर्तमान चौबीसी के अजितनाथ तीर्थंकर के समय एक साथ १७० तीर्थंकर हुए थे अर्थात् ढाईद्वीप में कुल पाँच भरतक्षेत्र,पाँच ऐरावतक्षेत्र और पाँच विदेहक्षेत्रों के १६० नगरों में सभी जगह एक-एक तीर्थंकर थे। भरत और ऐरावतक्षेत्र के तीर्थंकर पाँच कल्याणक वाले ही होते हैं, जबकि विदेहक्षेत्र के तीर्थंकर दो, तीन या पाँच कल्याणक वाले होते हैं। भरत - ऐरावतक्षेत्र के तीर्थंकरों के चार अनन्त चतुष्टय के साथ ४२ बाह्य गुण होते हैं। प्रत्येक तीर्थंकर का शासन चलता है अतः ये आप्त भी कहलाते हैं। तीर्थंकर जन्म से ही तीन ज्ञान के धारी होते हैं। आगम को भी तीर्थ कहा जाता है, उसके मूलग्रन्थकर्ता तीर्थंकर भगवान ही कहलाते हैं। तीर्थंकरों को (मुनि अवस्था में) आहार तो होता है, परन्तु निहार नहीं होता; उनके दाढ़ी - मूछ नहीं होती, परन्तु सिर पर बाल होते हैं। (उनके बाल और नख बढ़ते नहीं हैं) उनका शरीर निगोदिया जीवों से रहित होता है। एक स्थान पर दो तीर्थंकर एक साथ कभी नहीं होते। (-जैनेन्द्र सिद्धांत कोश , भाग २,पृष्ठ ३७३) प्रश्न २२२- गोत्र कर्म किसे कहते हैं? उत्तर - जिस कर्म के उदय से उच्च, नीच गोत्र या कुल का व्यवहार होता है उसे गोत्रकर्म कहते हैं। प्रश्न २२३- गोत्र कर्म के कितने भेद हैं? उत्तर - गोत्र कर्म के दो भेद हैं - उच्च गोत्र और नीच गोत्र कर्म । प्रश्न २२४- उच्च गोत्र कर्म किसे कहते हैं? उत्तर जिस कर्म के उदय से लोकमान्य गोत्र या कुल में जन्म होता है उसे उच्च गोत्र कर्म कहते हैं। (दूसरे की प्रशंसा और अपनी निन्दा, दूसरे के गुणों को प्रगट करने और अपने गुणों को छिपाने के भावों से तथा विनम्रता और मद के अभाव से उच्च गोत्रकर्म का बन्ध होता है।) (- तत्वार्थसूत्र ६/२६) प्रश्न २२५- नीच गोत्र कर्म किसे कहते हैं? उत्तर - जिस कर्म के उदय से लोकनिन्द्य गोत्र या कुल में जन्म होता है उसे नीच गोत्र कर्म कहते हैं। (दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा, दूसरे के विद्यमान गुणों को छिपाने और अपने अप्रगट गुणों को प्रगट करने के भावों से नीच गोत्र कर्म का बन्ध होता है।) (- तत्वार्थसूत्र ६/२७) प्रश्न २२६- अन्तराय कर्म किसे कहते हैं? उत्तर - जिस कर्म के उदय से दान आदि में विघ्न होता है उसे अन्तराय कर्म कहते हैं। (दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न करने के भाव से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है।)(त.सू. ६/२५) प्रश्न २२७ - अन्तराय कर्म के कितने भेद हैं ? उत्तर अन्तराय कर्म के पाँच भेद हैं - दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय कर्म।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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