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प्रश्न २- स्वानुभव होने पर भी चारित्र में मलिनता किस कारण से होती है? उत्तर - भेदज्ञान पूर्वक निज का आश्रय लेने पर जो आत्म धर्म प्रगट होता है, वह अनुभव प्रकाश है।
उस समय चारित्र गुण की मिश्र दशा होने पर आंशिक निर्मलता व आंशिक मलिनता होती है। उस मलिनता में कर्म का उदय निमित्त मात्र है वस्तुत: वह स्वयं के पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण होती है।
गाथा-२८
महिमा मय हैं जिन वचन जिन वयनं सहकारं, मिथ्या कुन्यान सल्य तिक्तं च।
विगतं विसय कसायं,न्यानं अन्मोय कम्म गलियं च ॥ अन्वयार्थ-(जिन) जिनेन्द्र भगवान के (वयन) वचन (सहकार) [स्वीकार करने से (मिथ्या) मिथ्यात्व (कुन्यान) कुज्ञान (च) और (सल्य) शल्य (तिक्त) छूट जाती हैं (विसय) विषय (च) और (कसायं) कषायों का (विगतं) अभाव हो जाता है (न्यानं) ज्ञान स्वभाव में (अन्मोय) लीन होने से (कम्म) कर्म (गलिय) गल जाते हैं।
अर्थ - परम वीतरागी परमात्मा श्री जिनेन्द्र भगवान के वचन स्वीकार करने से मिथ्यात्व, कुज्ञान और शल्यों का अभाव हो जाता है। विषय - कषाय कहाँ चले जाते हैं, ढूंढने से भी मिलते नहीं हैं। ज्ञान स्वभाव में लीन होने से अनादिकालीन समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं। प्रश्न १- जिन वचन रूप जिनवाणी की क्या विशेषता है ? उत्तर - अरिहंत परमात्मा की दिव्य ध्वनि से आई हुई वाणी को जिनवाणी कहते है। मंदिर विधि में
जिनवाणी को श्री कहा गया है और उसके पाँच विशेषण बतलाये गये हैं -'श्री कहिये शोभनीक, मंगलीक, जय जयवंत, कल्याणकारी, महासुखकारी' इस प्रकार जिनवाणी पाँच
विशेषणों से युक्त महिमामय है। प्रश्न २- ज्ञानी को सम्यकचारित्र होता है या करना पड़ता है? उत्तर - सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान होता है और सम्यग्ज्ञान पूर्वक सम्यक्चारित्र होता है। जीव की
पात्रता और पुरुषार्थ के अनुसार सम्यक्चारित्र स्वयमेव होता है, करना नहीं पड़ता। जैसे-बीज बोने के बाद उसमें अंकुर, पत्ती, फल-फूल अपने आप लगते हैं, लगाना नहीं
पड़ते। इसी प्रकार मोक्ष मार्ग में सम्यकदृष्टि ज्ञानी को सम्यक्चारित्र स्वयमेव होता है। प्रश्न ३- ज्ञानी की पहिचान क्या है? उत्तर - ज्ञानी समता शांति में ज्ञायक रहता है। तत् समय की योग्यतानुसार सारा परिणमन चलता है,
इससे वह भ्रमित भयभीत नहीं होता है, न उसे कोई चाहना-कामना होती है, हर दशा में हर समय आनन्द में रहता है, यह ज्ञानी की पहिचान है।