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जिन वयनं च सहावं, जिनियं मिथ्यात कसाय कम्मानं ।
अप्पा सुद्धप्पानं, परमप्पा ममल दर्सए सुद्धं ॥
अन्वयार्थ (जिन वयनं) जिन वचनों के अनुसार (सहावं) स्वभाव के आश्रय से (मिध्यात ) मिथ्यात्व (कसाय) कषाय (च) और (कम्मानं) कर्मों को (जिनियं) जीतो (अप्पा) मैं आत्मा (सुद्धप्पानं) शुद्धात्मा (परमप्पा) परमात्मा हूँ (ममल) ऐसे ममल (सुद्धं ) शुद्ध स्वभाव का (दर्सए) दर्शन करो।
प्रश्न २उत्तर
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अर्थ - जिनेन्द्र भगवान के वचनों को स्वीकार करके ममल स्वभाव के आश्रय से मिथ्यात्व कषाय और कर्मों को जीतो मैं आत्मा शुद्धात्मा परमात्मा हूँ, संसार में सर्वोत्कृष्ट परम आनन्दमयी अमृत रस से परिपूर्ण अपने शुद्ध स्वभाव का दर्शन करो अर्थात् स्वानुभूति में लीन रहो ।
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प्रश्न १- पर्याय में शुद्धता कैसे प्रगट होती है ?
उत्तर
प्रश्न ३ उत्तर
प्रश्न ४
उत्तर
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को जानता है और उन्हें जानते हुए उनके स्वभाव - विभावपने का, सुख-दुःख रूप वेदन का, साधक बाधकपने आदि का उसे विवेक रहता है। मैं परिपूर्ण शुद्ध ज्ञान स्वरूपी शुद्धात्मा
हूँ ऐसे स्वभाव पर दृष्टि रहती है, इससे विभाव परिणमन अपने आप विला जाता है।
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गाथा - १६
परमात्म स्वरूप के दर्शन की प्रेरणा
आत्म स्वभाव रागादि विभाव से निरपेक्ष है। ज्ञानी को स्वभाव में प्रगाढ़ प्रीति होती है और अखंडानंद शुद्ध स्वभाव के आश्रय पूर्वक पर्याय में शुद्धता प्रगट होती है । सच्चा ज्ञानी कौन है ?
जो ग्रहण करने योग्य नहीं हैं, ऐसे पर भाव या पर द्रव्य को जो ग्रहण नहीं करता तथा सदा ग्रहण किया हुआ जो अपना स्वभाव है उसका कभी त्याग नहीं करता वही सच्चा ज्ञानी है।
सम्यक् चारित्र का मार्ग किसकी समझ में आता है ?
सम्यक्चारित्र का मार्ग सूक्ष्म है, वह निकट भव्य जीव की समझ में आता है।
चारित्र की समझ में क्या सावधानी रखना चाहिये ?
व्यवहार चारित्र का मार्ग स्थूल है, वह सहज ही समझ में आ जाता है। व्यवहार चारित्र साधन है, साध्य नहीं है । भूल यह हो जाती है कि साध्य का लक्ष्य न होने से साधन को ही साध्य मान लिया जाता है। इसमें सावधान रहना आवश्यक है।
प्रश्न ५ - मिथ्यात्व कषाय कर्मादि को जीतने का मूल आधार क्या है ?
उत्तर
मैं आत्मा सिद्ध स्वरूपी शुद्धात्मा हूं, मेरे स्वभाव में कोई भी कर्म, संयोग या भाव विभाव नहीं हैं और जगत का त्रिकालवर्ती परिणमन क्रमबद्ध निश्चित अटल है। यह वस्तु स्वरूप का निर्णय ही मिथ्यात्व कषाय और कर्मादि को जीतने का मूल आधार है।