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________________ १२७ संकल्प-विकल्प रूप परिणामों में जुड़ना । मन माया मोह से ग्रसित विचारों का प्रवाह है, मोहनीय कर्म की पर्याय है। इस पर्याय पर दृष्टि होने से अहं भाव बढ़ता है। पर्याय दृष्टि पूर्वक शास्त्र का अभ्यास व्रतादि और अन्य क्रियायें करके मन को रंजायमान करना मनरंजन गारव है। प्रश्न ४- सम्यक्दृष्टि ज्ञानी को कितने प्रकार का वैराग्य उत्पन्न होता है? उत्तर - सम्यकदृष्टि ज्ञानी को तीन प्रकार का वैराग्य उत्पन्न होता है। उसका जनरंजन राग गल जाता है, कलरंजन दोष और मनरंजन गारव को भी वह त्याग देता है और अपने निरंजन निर्विकार स्वभाव की साधना में संलग्न रहता है। गाथादर्शन मोहांध के अभाव में दिखते हैं अनन्त चतुष्टय दर्सन मोहंध विमुक्कं, राग दोसं च विषय गलियं च । ममल सुभाव उवन्न, नंत चतुस्टय दिस्टि संदर्स ॥ अन्वयार्थ - (दर्सन) दर्शन मोहनीय के (मोहंध) मिथ्यात्व रूप अन्धकार से (विमुक्क) विमुक्त होने पर (राग दोस) राग-द्वेष (च) और (विषय) विषय भाव (गलियं) गल जाते हैं (ममल सुभाव) ममल स्वभाव (उवन्न) उत्पन्न हो जाता है (च) और (नंत चतुस्टय) अनंत चतुष्टय मयी [सर्वज्ञ स्वभाव] (दिस्टि) दृष्टि में (संदस) दिखाई देने लगता है। अर्थ - दर्शन मोहनीय के मिथ्यात्व रूप अंधकार का अभाव होने पर इष्ट - अनिष्ट रूप राग - द्वेष और दुःखदायी विषय भाव गल जाते हैं, ममल स्वभाव उत्पन्न हो जाता है और अपना अनन्त चतुष्टयमयी सर्वज्ञ स्वभाव दृष्टि में दिखाई देने लगता है। (मोहनीय कर्म के भेद-प्रभेद अध्याय ४, श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका प्रश्न क्रमांक १४९ से देखें।) प्रश्न १- सम्यग्दर्शन कब होता है? उत्तर - दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियाँ और चारित्र मोहनीय की अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन सात प्रकृतियों के उपशम क्षयोपशम या क्षय के निमित्त से आत्म स्वरूप की अनुभूति होने पर सम्यग्दर्शन होता है। प्रश्न २- परमात्म स्वरूप कब दिखाई देता है ? उत्तर - सम्यग्दर्शन होने पर सम्यक्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान पूर्वक वस्तु स्वरूप को यथार्थ जानता है, जिससे राग - द्वेष विषय आदि स्वयं छूटने लगते हैं, यही सम्यक्चारित्र का प्रगट होना है। इसी अनुभूति में अपना ममल स्वभाव उत्पन्न होता है और अनंत चतुष्टय मयी परमात्म स्वरूप दिखाई देता है। प्रश्न ३- रागादि विभावों के रहते हुए स्वभाव दिखाई क्यों नहीं देता? उत्तर - विभाव, कर्मोदय के निमित्त से होने वाले शुभाशुभ परिणाम हैं और स्वभाव कर्मादि संयोगों से रहित आत्मा की शुद्ध सत्ता है। अनादि काल से जीव विभाव भाव में ही रमण करता रहा है। जिस प्रकार पानी में लहरें उत्पन्न होने पर चेहरा दिखाई नहीं देता इसी प्रकार अन्तर में रागादि विभावों के रहते हुए स्वभाव दिखाई नहीं देता।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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