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रूव संजुत्तं) चैतन्य स्वरूप में लीन रहने से (ति कम्म) तीन प्रकार (द्रव्य, भाव, नो) के कर्मों के (बंधानं) बन्धन (गलिय) गल जाते हैं (विलियं) विला जाते हैं।
अर्थ- कर्म स्वभाव से क्षय होने वाले हैं। कर्मों का उत्पन्न होना और क्षय होना अर्थात् कर्मों का आश्रव बंध होना और निर्जरित होना दृष्टि के सद्भाव पर निर्भर है। चैतन्य स्वरूप में लीन रहने से द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म तीनों ही प्रकार के कर्मों के बंधन गल जाते हैं, विलय हो जाते हैं। प्रश्न १- कर्म के बंध और निर्जरा में मूल कारण क्या है? उत्तर - कर्म स्वभाव से नाशवान हैं अर्थात् कर्मों का स्वभाव क्षय होने का है। कर्मों का उत्पन्न होना
अर्थात् आस्रव बंध होना और क्षय होना, दृष्टि के सद्भाव पर निर्भर है। विभाव पर्याय पर रागादि विकारयुक्त दृष्टि से कर्मों का आस्रव, बंध होता है और अपने ममल स्वभाव पर दृष्टि होने से कर्म क्षय होते हैं। अपने चैतन्य स्वरूप में लीन रहने से द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म
तीनों प्रकार के कर्मों के बंधन विला जाते हैं। प्रश्न २- कर्मों का आसव, बंध जीव को किस कारण से होता है? उत्तर - अज्ञानी जीव अचैतन्य पर वस्तुओं को अपना मानता है, इसलिये रागादि भाव होते हैं।
ज्ञानावरणादि द्रव्य कर्म और शरीरादि संयोग नो कर्म कहलाते हैं। जीवों को तीनों प्रकार के
कर्मों का आस्रव, बंध अज्ञान के कारण होता है। प्रश्न ३- सम्यकदृष्टि ज्ञानी के कमों की निर्जरा किस प्रकार होती है? उत्तर - सम्यक्दृष्टि ज्ञानी अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप ध्रुव स्वभाव में लीन रहता है। जिससे सम्यग्दर्शन
ज्ञान चारित्र पूर्वक उसके कर्मों की निर्जरा होती है। प्रश्न ४- किए हुए कर्मों का फल कौन भोगता है? उत्तर - जिस प्रकारखतमा
जिस प्रकार खेत में बोए हुए बीजों के अनुरूप उनके फल समय पर प्रगट होते हैं उसी प्रकार अज्ञान पूर्वक किये हुए कर्मों के फल अन्य पर्याय मेंअथवा इसी पर्याय में समय पर प्रगट होते हैं। जीव जैसे कर्म करता है उनका फल स्वयं को ही भोगना पड़ता है।
गाथा-७
विशुद्ध ज्ञान बल की महिमा मन सुभाव संषिपनं, संसारे सरनि भाव विपनं च ।
न्यान बलेन विसुद्ध, अन्मोयं ममल मुक्ति गमनं च ॥ अन्वयार्थ - (मन सुभाव) मन का स्वभाव (संषिपन) नाशवान, क्षय होने का है (च) और (संसारे) चार गति, पंच परावर्तन रूप संसार में (सरनि) परिभ्रमण कराने वाले (भाव) रागादि भाव (विपनं च) भी क्षय हो जाते हैं (विसुद्ध) विशुद्ध (न्यान) सम्यग्ज्ञान के (बलेन) बल से (ममल) ममल स्वभाव में (अन्मोयं) लीन रहना ही (मुक्ति गमनं) मोक्ष प्राप्ति का उपाय है।
अर्थ - मन का स्वभाव नाशवान है। चार गति पंच परावर्तन रूप संसार में परिभ्रमण कराने वाले रागादि विकारी भाव भी क्षय हो जाते हैं। अपने विशुद्ध सम्यग्ज्ञान के बल से ममल स्वभाव में लीन रहो, यही मोक्ष को प्राप्त करने का उपाय है।