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गाथा-५ पर्याय गलने और कर्म क्षय होने का उपाय नंद अनंदं रूवं, चेयन आनंद पर्जाव गलियं च ।
न्यानेन न्यान अन्मोय, अन्मोयं न्यान कम्म विपन च ॥ अन्वयार्थ - (रूवं) अपना सत्स्वरूप (नंद) नन्द (अनंद) आनन्द मयी है (चेयन) चैतन्य स्वरूप के (आनंद) आनंद में रहने से (पर्जाव) पर्याय (गलिय) गल जाती है (च) और (न्यानेन) ज्ञान के बल से (न्यान) ज्ञान स्वभाव की (अन्मोयं) अनुमोदना, चिंतन मनन करने से [तथा] (न्यान) ज्ञान स्वभाव में (अन्मोयं) लीन रहने से (कम्म) कर्म (विपनं च) क्षय हो जाते हैं।
अर्थ-अपना सत् स्वरूप नंद आनंदमयी है, चैतन्य स्वरूप के आनंद में आनंदित रहने से पर्याय गल जाती है और ज्ञान के बल से ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना चिंतन - मनन करने से तथा उपयोग के स्वभाव में लीन रहने से कर्म क्षय हो जाते हैं। ज्ञान भाव में रहने से पर्याय गलती है और ज्ञान स्वभाव में रहने से कर्म क्षय हो जाते हैं। प्रश्न १- पर्यायी भावों से जीव को भयभीतपना क्यों रहता है? उत्तर - जीव ने अपनी सत्ता शक्ति को नहीं पहिचाना, अपना स्वाभिमान, बहुमान जाग्रत नहीं किया,
इसलिये कर्मोदय जनित पर्यायी भावों से भयभीतपना रहता है। प्रश्न २- किस जीव की विभाव पर्याय निर्जरित हो जाती है? उत्तर - पर्याय एक समय की होती है, ज्ञानी उससे दृष्टि हटाकर अपने स्वभाव में रहते हैं उनकी
विभाव पर्याय निर्जरित (क्षय) हो जाती है। प्रश्न ३- इस गाथा में रहस्य पूर्ण बात क्या है? उत्तर - यहाँ सद्गुरू ने दो विशेष सूत्र दिये हैं
(१) अपने चैतन्य स्वभाव के आनंद में रहने से पर्याय गल जाती हैं।
(२) अपने ज्ञान स्वभाव में लीन होने पर कर्म क्षय हो जाते हैं। प्रश्न ४- पर्याय गलने और कर्म क्षय होने में क्या अंतर है? उत्तर - ज्ञानी साधक स्वभाव के आश्रय से अपना ज्ञान बल जाग्रत रखता है, ज्ञायक रहता है तथा
पर्यायी परिणमन में उसे अच्छा-बुरा नहीं लगता, यही पर्याय का गलना है। त्रिविध योग की एकता पूर्वक अपने स्वभाव में लीन रहने से कर्म निर्जरित अर्थात् क्षय होते हैं। यही पर्याय के गलने और कर्म क्षय होने में अंतर है।
गाथा-६
धर्म कर्म का रहस्य कम्म सहावं विपन, उत्पत्ति षिपिय दिस्टि सभा ।
चेयन रूव संजुत्तं, गलियं विलियं ति कम्म बंधानं ॥ अन्वयार्थ-(कम्म) कर्म (सहावं) स्वभाव से (विपन) नाशवान, क्षय होने वाले हैं (उत्पत्ति) कर्म का उत्पन्न होना और (पिपिय) क्षय होना (दिस्टि सभावं) दृष्टि के सद्भाव पर निर्भर है (चेयन