SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न १- इस गाथा में कमल श्री को संबोधित किया गया है, यह कमल श्री कौन थीं? उत्तर - कमल श्री भद्र परिणामों से युक्त ग्रहस्थ श्राविका थीं। इनकी आत्म कल्याण के मार्ग में चलने की उत्कृष्ट भावना थी। इनके ही निमित्त से श्री गुरू तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने यह कमल बत्तीसी ग्रंथ लिखा। जब आचार्य श्री गुरू तारण स्वामी जी ने श्री संघ की स्थापना की तब उनके संघ में ७ निर्ग्रन्थ मुनिराजों सहित ३६ आर्यिकायें भी थीं। कमल श्री श्राविका आगे चलकर कमल श्री आर्यिका हुई और प्रमुख गणिनी पद को सुशोभित किया। प्रश्न २- आचार्य श्री मद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने कमल श्री को किस प्रकार संबोधित किया? उत्तर - सद्गुरू तारण स्वामी ने कहा कि हे कमल श्री ! तुमने वस्तु स्वरूप जान लिया है, अत: जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों पर दृढ़ श्रद्धान करो और स्वयं परमात्मा बनो। अपना कमल भाव प्रगट करो, आर्यिका पद धारण कर सरल सहज स्वभाव में लीन रहो, यही मुक्ति का मार्ग है। प्रश्न ३- साधु पद और वीतरागता कब प्रगट होती है? उत्तर - सर्वोत्कृष्ट महिमा का भंडार चैतन्य देव अनादि अनन्त परम पारिणामिक भाव में स्थित है इसलिये- द्रव्य दृष्टि पूर्वक एक ज्ञायक स्वभाव को लक्ष्य में लेकर ध्रुव स्वभाव का आश्रय लेने से सच्चा साधु पद और वीतरागता प्रगट होती है। सहज सरल परिणति और ज्ञायक भाव साधु जीवन की प्रामाणिकता है। गाथा-३ रत्न के समान रत्नत्रय स्वरूप अन्मोयं न्यान सहावं,रयन रयन सरूव विमल न्यानस्य । ममलं ममल सहावं, न्यानं अन्मोय सिद्धि संपत्तं ॥ अन्वयार्थ - (न्यान सहाव) ज्ञान स्वभाव की (अन्मोयं) अनुमोदना करो (रयन) रत्न के समान (रयन) रत्नत्रय मयी (विमल न्यानस्य) विमल ज्ञान का धारी (ममल) ममल (सरूव) स्वरूप है [इसी] (न्यान) ज्ञान मयी (ममल सहाव) ममल स्वभाव में (अन्मोय) लीन रहो [और] (सिद्धि संपत्त) सिद्धि की संपत्ति प्राप्त करो। अर्थ - हे आत्मन् ! ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना करो, रत्न के समान रत्नत्रयमयी विमल ज्ञान का धारी अपना ममल आत्म स्वरूप है। इसी ज्ञानमयी ममल स्वभाव में लीन रहो और सिद्धि की सम्पत्ति को प्राप्त करो। प्रश्न १- इस गाथा का अभिप्राय स्पष्ट कीजिये? उत्तर - इस गाथा में आचार्य कहते हैं कि हे आत्मन् ! अपने चैतन्य स्वभाव में लीन रहो। रत्न के समान उज्ज्वल दैदीप्यमान रत्नत्रयमयी अपना विमल ज्ञान स्वरूप है । इसी निर्विकारी ममल स्वभाव की निर्विकल्प अनुभूति से मुक्ति की प्राप्ति होती है इसलिये अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होकर मुक्ति की परम सम्पदा को प्राप्त करो, यही परम पुरुषार्थ है।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy