________________
१२१
गाथा -१ मंगलाचरण- परम देव को नमस्कार तत्वं च परम तत्वं, परमप्पा परम भाव दरसीये ।
परम जिनं परमिस्टी, नमामिहं परम देव देवस्या | अन्वयार्थ -(तत्व) तत्त्व (च) और (परम तत्व) परम तत्त्व (परमप्पा) परमात्म स्वरूप है [जो] (परम भाव) परम पारिणामिक भाव में (दरसीये) दर्शित होता है, दिखाई देता है, अनुभव में आता है [यही] (परम जिन) परम जिन स्वभाव (परमिस्टी) परम इष्ट,उपादेय है [ऐसे] (देवस्या) देवों के (परम देव) परम देव को (नमामिहं) मैं नमस्कार करता हूं।
अर्थ- तत्त्व और परम तत्त्व परमात्म स्वरूप, जो परम पारिणामिक भाव में स्वानुभव पूर्वक दर्शित होता है, अनुभव में आता है, यही परमात्म स्वरूप परम जिन स्वभाव, परम इष्ट उपादेय है, ऐसे देवों के परम देव को मैं नमस्कार करता हूँ। प्रश्न १- तत्त्व और परम तत्त्व में क्या अंतर है? उत्तर - चित् सत्ता रूप आत्म स्वभाव जो प्रत्येक जीव का स्वरूप है वह तत्त्व है। जिन जीवों ने अपने
तत्त्व स्वरूप में लीन होकर अरिहंत सिद्ध पद प्रगट कर लिया है वही परम तत्त्व है। प्रश्न २- तत्त्व और परम तत्त्व की क्या महिमा है? उत्तर - तत्त्व और परमतत्त्व निज स्वरूप ही है। ऐसे शुद्ध स्वरूप में श्रद्धान ज्ञान पूर्वक लीनता से
परम पारिणामिक भाव का अनुभव होता है और परमपद अर्थात् सिद्धत्व की प्राप्ति होती है। प्रश्न ३- देवों का देव परम देव कौन है? उत्तर - अरिहंत और सिद्ध परमात्मा देव हैं, और उन्होंने निज शुद्धात्मा के आश्रय से देवत्व पद को
प्राप्त किया है इसलिये देवों का देव परम देव निज शुद्धात्मा है।
गाथा-२ सत्श्रद्धान और सरल स्वभाव की महिमा जिन वयनं सद्दहनं, कमलसिरि कमल भाव उववन्नं ।
अर्जिक भाव सउत्तं, ईर्ज सभाव मुक्ति गमनं च ॥ अन्वयार्थ-(कमलसिरि) हे कमल श्री ! (जिन वयन) जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों पर (सहहन) द्वान करके (कमल भाव) कमल भाव अर्थात् ज्ञायक भाव को (उववन्न) उत्पन्न करो, प्रगट करो (च) और (अर्जिक) आर्यिका पद के (भाव सउत्त) भावों से संयुक्त होकर, भावों को जगाकर (ईर्ज सभाव) सरल स्वभाव में रहो (मुक्ति गमनं) यही मुक्ति गमन का उपाय है।
अर्थ - हे कमल श्री! जिनेन्द्र परमात्मा के वचनों पर श्रद्धान करके जल में रहते हुए भी अलिप्त, कमल के समान निर्विकारी ज्ञायक भाव को प्रगट करो। आर्यिका पद स्वयं के रमण के भाव जाग्रत करके सरल स्वभाव में रहो, यही मुक्ति गमन का उपाय है।