SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० श्री कमलबत्तीसीजी संक्षिप्त परिचय स्वरूपे चरणं चारित्रं - स्वरूप में आचरण करना सम्यक्चारित्र है । जो ज्ञानी पुरुष संसार के कारणों को दूर करने के लिये उद्यमी है वे कर्मों को ग्रहण करने में निमित्तभूत क्रियाओं का त्याग करते है यही सम्यक्चारित्र कहलाता है। वस्तुत: चारित्र ही धर्म है तथा मोह और क्षोभ अर्थात् राग-द्वेष से रहित वीतराग समभाव रूप आत्मा का ही परिणाम है। चारित्र यद्यपि एक प्रकार का है परन्तु उसमें जीव के अंतरंग भाव व बाह्य त्याग दोनों बातें एक साथ होने के कारण अथवा पूर्व भूमिका और ऊंची भूमिकाओं में विकल्प व निर्विकल्पता की प्रधानता होने के कारण उसका निरूपण दो प्रकार से किया गया है - निश्चय चारित्र और व्यवहार चारित्र । इन दोनों प्रकार के चारित्र में जीव की अंतरंग विरागता साम्यता निश्चय चारित्र है और बाह्य वस्तुओं के त्याग रूपव्रत,बाह्य क्रियाओं में यत्नाचार रूप समिति तथा मन, वचन, काय को नियंत्रित करने रूप गुप्ति का पालन व्यवहार चारित्र है। व्यवहार चारित्र को सराग चारित्र और निश्चय चारित्र को वीतराग चारित्र भी कहते हैं। निचली भूमिकाओं में व्यवहार चारित्र की प्रधानता रहती है और ऊपर - ऊपर ध्यानस्थ भूमिकाओं में निश्चय चारित्र की प्रधानता रहती है। मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत साक्षात् द्वार के समान अतिशय महिमामय सम्यक्चारित्र का वर्णन आचार्य प्रवर श्री मद् जिन तारण तरण मण्डलाचार्य जी महाराज ने श्री कमल बत्तीसी जी ग्रंथ में किया है। जिन वचनों के श्रद्धान पूर्वक कमल भाव अर्थात् ज्ञायक भाव को प्रगट करना और वीतराग चारित्र को धारण करना मुक्ति को प्राप्त करने का उपाय है। सम्यक्चारित्र मोक्षमार्ग में प्रधान है। इसकी आराधना करने से दर्शन, ज्ञान और तप यह तीनों आराधना हो जाती हैं। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमय आत्मा ही निश्चय से एक मोक्ष का मार्ग है। जो भव्य जीव अपने को आत्म स्वभाव में स्थित करता है, आत्म स्वभाव का ध्यान कर उसी का निरंतर अनुभव करता है वह निश्चित ही नित्य समयसार सिद्ध स्वरूप का अनुभव करता है। ऐसे भव्य जीव समयसार में स्थित होकर निजात्मा से भिन्न अन्य आत्माओं, पुद्गलों को तथा धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन चार अमूर्ती द्रव्यों को तथा उनके भावों को रंच मात्र भी स्पर्श नहीं करते। वास्तव में यह आत्मानुभव ही मोक्षमार्ग है और योगी को यही निरन्तर करना चाहिये। जहाँ शुद्धात्मा का श्रद्धान है, ज्ञान,ध्यान है अर्थात् जहाँ शुद्धात्मा का अनुभव है, उपयोगपंचेन्द्रिय व मन के विषयों से हटकर एक निर्मल आत्मा में ही तन्मय है, वहीं यथार्थ मोक्षमार्ग है।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy