________________
गाथा-३२ सच्ची पूजा का स्वरूप और मुक्ति मार्ग एतत् समिक्त पूजस्या, पूजा पूज्य समाचरेत् ।
मुक्ति श्रियं पथं सुद्ध, विवहार निस्चय सास्वतं ॥ अन्वयार्थ - (एतत्) इस प्रकार (संमिक्त पूजस्या) सम्यक्त्व सहित की जाने वाली पूजा का स्वरूप कहा (पूज्य समाचरेत्) पूज्य के समान आचरण होना ही [सच्ची] (पूजा) पूजा है (मुक्ति श्रियं) मुक्ति श्री को प्राप्त करने का (पथं सुद्ध)शुद्ध पथ (विवहार निस्चय) व्यवहार निश्चय से (सास्वतं) शाश्वत है।
अर्थ- आत्म दृष्टा परम वीतरागी आत्मज्ञानी संत आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज कहते हैं - इस प्रकार सम्यक्त्व सहित की जाने वाली पूजा का स्वरूप वर्णन किया। पूज्य के समान आचरण होना ही सच्ची पूजा है । मुक्ति श्री को प्राप्त करने का शुद्ध पथ व्यवहार और निश्चय से शाश्वत है। प्रश्न १- पूजा पूज्य समाचरेत् का क्या अर्थ है? उत्तर - पूज्य के समान आचरण होना ही सच्ची पूजा है। पूज्य के समान ही अपना शुद्धात्मा शुद्ध
चैतन्य स्वरूप है । ऐसा जानकर निज शुद्धात्मा की आराधना करते हुए पूज्य के समान
वीतरागतामय आचरण बनाना सच्ची पूजा है। यही पूजा पूज्य समाचरेत् का अर्थ है। प्रश्न २- भक्ति और पूजा का क्या स्वरूप है? उत्तर -
पूजा का अभिप्राय पूज्य सम, स्वयं पूज्य बन जाना है ।
जो भी अपना इष्ट मानते, उसी इष्ट को पाना है | भक्ति अर्थात् भजना-किसको भजना? अपने स्वरूप को भजना। आत्म स्वरूप निर्मल निर्विकारी-सिद्ध परमात्मा के समान है। उसकी यथार्थ प्रतीति करके उसको भजना यही निश्चय भक्ति है, और यही परमार्थ स्तुति है । व्यवहार से परमात्मा के गुणों में अनुराग होना भक्ति है। निश्चय से अपने ध्रुव तत्त्व शुद्धात्म स्वरूप के आश्रय से पर्याय की अशुद्धि और कमी को दूर कर पूर्णता को उपलब्ध करना पूजा है। व्यवहार से अरिहंत सिद्ध परमात्मा के
गुणों की आराधना करना पूजा है। प्रश्न ३- ज्ञानी को पूज्य का बहुमान कैसा होता है और पूजा विधि का सार क्या है? उत्तर - गणधर देव कहते हैं कि हे जिनेन्द्र भगवान ! मैं आप जैसे ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकता।
आपके एक समय के ज्ञान में समस्त लोकालोक तथा अपनी भी अनन्त पर्यायें झलक रही हैं। कहाँ आपका अनंत द्रव्य पर्यायों को जानने वाला अगाधज्ञान और कहाँ मेरा अल्प ज्ञान? चार ज्ञान का धारी भी छद्मस्थ है। केवलज्ञानी परमात्मा शुद्ध स्वरूप में लीन हो गये हैं। इस प्रकार प्रत्येक साधक द्रव्य अपेक्षा से अपने को परमात्मा स्वीकार कर लेने पर भी ज्ञान, दर्शन आदि पर्यायों की अपेक्षा से अपनी कमी को जानता है और इसे पूरा करने के लिये अरिहंत सिद्ध परमात्मा की वाणी के अनुसार अपने इष्ट निज शुद्धात्म देव की पूजा आराधना करता है। जिससे परमात्म पद प्रगट होता है। यही ज्ञान मार्ग की पूजा विधि का सार है।