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प्रश्न ४- धर्म की प्राप्ति और आत्म कल्याण का मूल क्या है? उत्तर - धर्म की प्राप्ति और आत्म कल्याण का मूल भेदज्ञान तत्त्व निर्णय पूर्वक अपने स्वानुभव को
उपलब्ध करना है। आत्म ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है। किसी जीव को क्षयोपशम बहुत हो और अंतर में निज शुद्धात्म स्वरूप का बोध न हो तो वह ज्ञान कोई कार्यकारी नहीं है। जैसे-चम्मच सभी व्यंजनों में जाती है परन्तु उसे स्वाद किसी भी वस्तु का नहीं आता। इसी प्रकार क्षयोपशम ज्ञान वाले जीव की दशा होती है। उसके क्षयोपशम ज्ञान में सब होने पर भी उसको अनुभव रूप स्वाद नहीं आता इसलिये स्वानुभूति ही धर्म की प्राप्ति और आत्म कल्याण का मूल है।
गाथा -३१ शुद्धात्म स्वरूप की साधना की प्रेरणा मिथ्या तिक्त त्रितियं च, कुन्यानं त्रिति तिक्तयं ।
सुद्ध भाव सुद्ध समयं च, साधं भव्य लोकयं ॥ अन्वयार्थ- (भव्य लोकयं) हे भव्य जीवो ! (त्रितियं) तीन प्रकार के (मिथ्या) मिथ्यात्व को (तिक्त) छोड़ो (त्रिति) तीन प्रकार के (कुन्यानं) कुज्ञान का (तिक्तयं) त्याग करो (च) और (सुद्ध भाव) शुद्ध भाव मयी (सुद्ध समयं) शुद्ध स्व समय की (साधं च) श्रद्धा और साधना करो।
अर्थ- हे भव्य जीवो ! मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व इन तीनों प्रकार के मिथ्यात्व को छोड़ो। कुमति, कुश्रुत, कुअवधि तीन प्रकार के कुज्ञान का त्याग करो और शुद्ध भावमयी अपने शुद्धात्म स्वरूप की श्रद्धा और साधना करो। प्रश्न १- मानव जीवन की सार्थकता और सफलता कब है? उत्तर - नैतिकता, उत्तम कुल, धनादि संयोगों की प्राप्ति, निरोग शरीर, दीर्घ आयु यह सभी शुभ योग
पूर्व पुण्य के उदय से प्राप्त होते हैं। उत्तम सरल स्वभाव का होना भी उपलब्धि है। यह सब शुभ
योग प्राप्त कर आत्म स्वभाव को पहिचानने में ही मानव जीवन की सार्थकता और सफलता है। प्रश्न २- जिन वचनों को स्वीकार करने का क्या महत्व है ? उत्तर - सर्वज्ञ परमात्मा के मुखारविन्द से निकली हुई वीतराग वाणी परम्परा से गणधरों व मुनियों
द्वारा प्रवाहित होती आई है, जो जिनवाणी शास्त्र रूप में गुंथित है। इस वीतराग वाणी में कथित तत्त्वों के स्वरूप को जो भव्य जीव हृदयंगम करते हैं, जिन वचनों को स्वीकार करते हैं वह संसार के दुःखों से मुक्त होकर परम पद को प्राप्त करते हैं, यही जिन वचनों को स्वीकार करने का महत्व है।