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________________ १०२ गाथा -३० जिनोपदेश में सर्व तत्त्वों का सार निज शुद्धात्मा साधं च सप्त तत्वानं, दर्व काया पदार्थक । चेतना सुद्ध धुवं निस्चय, उक्तंति केवलं जिन ॥ अन्वयार्थ - (सप्त तत्वानं) सात तत्त्वों में (दर्व) छह द्रव्यों में (काया) पाँच अस्तिकाय में (च) और (पदार्थक) नौ पदार्थों में (चेतना सुद्ध) शुद्ध चेतना मयी (धुवं) ध्रुव स्वभाव (निस्चय) निश्चय से इष्ट उपादेय है (साध) इसकी श्रद्धा, साधना करो (केवलं) केवलज्ञानी (जिन) जिनेन्द्र भगवान की (उक्तंति) यही दिव्य देशना है। अर्थ- केवलज्ञानी श्री जिनेन्द्र भगवान की परम पावन देशना है - सात तत्त्व - जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष । छह द्रव्य - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल । पाँच अस्तिकाय -जीव अस्तिकाय,पुद्गल अस्तिकाय,धर्म अस्तिकाय, अधर्म अस्तिकाय आकाश अस्तिकाय | नौ पदार्थ-जीव, अजीव, आस्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सत्ताईस तत्त्वों में एक मात्र शुद्ध चेतनामयी ध्रुव स्वभाव निश्चय से साधना करने योग्य इष्ट और उपादेय है, इसी सत्स्वरूप की निरंतर साधना आराधना करो। प्रश्न १- केवलज्ञानी भगवान ने वस्तु स्वरूप के बारे में क्या देशना दी है? उत्तर - केवलज्ञानी भगवान ने कहा है कि सात तत्त्व, छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, नौ पदार्थों में, शुद्ध चैतन्य मयी ध्रुव स्वभाव निज शुद्धात्मा ही इष्ट और प्रयोजनभूत है। प्रश्न २- सात तत्त्व, नौ पदार्थ आदि में आत्म श्रद्धान किस प्रकार करना चाहिये? उत्तर - भेद ज्ञान पूर्वक ऐसा श्रद्धान करना चाहिये कि सात तत्त्व (जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा, मोक्ष) में शुद्ध तत्त्व शुद्धात्मा मैं जीव तत्त्व हूँ। छह द्रव्य (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश, काल) में मैं शुद्ध जीव द्रव्य हूँ। पंचास्तिकाय (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश) में मैं शुद्ध जीवास्तिकाय शुद्धात्मा हूं। नौ पदार्थ (जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा, मोक्ष) में शुद्ध सिद्ध पद वाला मैं शुद्धात्मा हूँ, शेष अजीवादि तत्त्व मुझसे सर्वथा भिन्न हैं। प्रश्न ३- मिथ्यादष्टि और सम्यकदष्टि जीव की अंतर दशा कैसी होती है? उत्तर - मिथ्यादृष्टि - जीव अजीव के भेद को नहीं जानते। वे कर्मोदय जनित अवस्थाओं को अपना स्वरूप जानकर उनमें तन्मय हो जाते हैं। रागादि भाव, कर्म कृत होने पर भी उन्हें अपने भाव जानकर उनमें लीन रहते हैं। सम्यक्दृष्टि - जीव, अजीव, आस्रव, बंध आदि समस्त अवस्थाओं को जानते देखते हैं। रागादि परिणामों को मात्र जानते हैं। उनके कर्ता नहीं होते। शुभ-अशुभ भावों को कर्मोदय जनित परिणाम जानकर उनमें तन्मय नहीं होते।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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