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________________ प्रश्न २- संसार परिभ्रमण का कारण और उससे छूटने का उपाय क्या है? उत्तर - देह में आत्म बुद्धि, पर द्रव्य में कर्तृत्व बुद्धि, विषयों में सुख बुद्धि, शुभ भावों में धर्म बुद्धि संसार परिभ्रमण का कारण है। संसार परिभ्रमण से मुक्त होने का उपाय शुद्ध पूजा है जो शुद्ध तत्त्व की प्रकाशक है और मुक्ति गमन की कारण है। गाथा-२६ सम्यक्दृष्टि ज्ञानी की जीव मात्र के प्रति दृष्टि प्रति इन्द्रं प्रति पूर्नस्य, सुखात्मा सुद्ध भावना । सुद्धार्थ सुद्ध समयं च, प्रति इन्द्रं सुद्ध दिस्टितं ॥ अन्वयार्थ - (प्रति इन्द्र) प्रत्येक आत्मा (प्रति पूर्नस्य) अपने में परिपूर्ण है (सुद्धात्मा) शुद्धात्मा है (सुद्ध भावना) ऐसी शुद्ध भावना भाते हुए (सुद्धार्थ) निश्चय से प्रयोजनीय (सुद्ध समयं च) शुद्ध स्व समय का अनुभव करने वाले ज्ञानी (प्रति इन्द्र) प्रत्येक आत्मा को (सुद्ध दिस्टितं) शुद्ध दृष्टि से देखते है [अर्थात् प्रत्येक आत्मा को परिपूर्ण परमात्म स्वरूप देखते हैं।] अर्थ - प्रत्येक आत्मा स्वभाव से अपने में परिपूर्ण है, शुद्धात्मा परमात्मा है, ऐसी निरंतर भावना भाते हुए आत्म स्वरूप का चिंतन-मनन करते हुए, निश्चय से प्रयोजनीय शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करने वाले सम्यक्दृष्टि ज्ञानी प्रत्येक आत्मा को शुद्ध दृष्टि से परमात्म स्वरूप देखते हैं, अनुभव करते हैं। प्रश्न १- ज्ञानी की जगत के जीवों के प्रति कैसी दृष्टि होती है? उत्तर - ज्ञानी अपने आत्मा को सिद्ध के समान परमात्म स्वरूप जानता और मानता है। जैसा उसने अपने आपको देखा है, सिद्धांतत: वह उसी अनुसार जगत के समस्त जीवों को परमात्म स्वरूप देखता है। ज्ञानी जानता है कि संसारी दशा में जीव कर्म संयोग सहित होने से नाना प्रकार की योनियों मे जन्म-मरण करता है फिर भी स्वभाव दृष्टि से प्रत्येक आत्मा कर्म रहित सिद्ध के समान शुद्ध है। वह प्रत्येक आत्मा को शुद्ध दृष्टि से देखता है। प्रश्न २- क्या और कोई जीव भी शुद्ध दृष्टि हो सकता है? उत्तर - प्रत्येक जीव आत्मा अपने आपमें परिपूर्ण है, शुद्धात्मा है, जो भव्य जीव ऐसी शुद्ध भावना करता हुआ अपने प्रयोजनीय निज शुद्धात्म स्वरूप को देखता है, अनुभूति करता है वह जीव शुद्ध दृष्टि हो सकता है। गाथा - २७ ज्ञानी सच्ची पूजा के आचरण से संयुक्त दातारो दान सुद्धं च, पूजा आचरन संजुतं । सुद्ध संमिक्त हृदयं जस्य, अस्थिरं सुद्ध भावना ॥ अन्वयार्थ - (जस्य) जिसके (हृदय) हृदय में (सुद्ध संमिक्त) शुद्ध सम्यक्त्व है [ऐसा सम्यक्दृष्टि ज्ञानी] (दातारो) सच्चा दातार होता है (दान सुद्ध) शुद्ध दान देता है (च) और (सुद्ध भावना) शुद्ध
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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