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प्रश्न २- "अदेवं अन्यान मूटच"इस गाथा के पद्यानुवाद में कवि भूषण चंचल जी ने क्या
लिखा है? उत्तर - देव किन्तु देवत्व हीन जो, वे अदेव कहलाते हैं ।
वही अगुरू जड़ जो गुरू बनकर, झूठा जाल बिछाते हैं । ऐसे इन अदेव अगुरू की, पूजा है मिथ्यात्व महान ।
जो इनकी पूजा करते वे, भव-भव में फिरते अज्ञान || प्रश्न ३- मिथ्यात्व क्या है? भेद सहित बताइये। उत्तर - कुदेव-अदेव में देव बुद्धि, कुगुरू-अगुरू में गुरू बुद्धि और कुधर्म-अधर्म में धर्म बुद्धि होना ही
मिथ्यात्व है। इसके पाँच भेद हैं - (१) एकान्त (२) विपरीत (३) संशय (४) विनय (५) अज्ञान । मिथ्यात्व जीव को अनन्त संसार में परिभ्रमण का कारण है। पर को अपना मानना, पर से अपना भला होना मानना, यह तो भ्रम है ही, परन्तु अपनी एक समय की चलने वाली पर्याय में इष्ट-अनिष्टपना मानना भी मिथ्यात्व है। (इन पाँच भेदों की परिभाषा - अध्याय ४ में जैन
सिद्धांत प्रवेशिका के प्रश्न क्रमांक ३१४ से ३१८ तक दी गई है।) प्रश्न ४ - अज्ञानी जीव की मान्यता को स्पष्ट कीजिये? उत्तर - अज्ञानी संसारी जीव मोह के कारण अदेव, कुदेवादि की पूजा, वंदना भक्ति करता है, और
संसारी पुत्र, परिवार आदि की कामना पूर्ति चाहता है, जबकि यह सब प्रत्येक जीव को स्वयं के कर्मोदय अनुसार प्राप्त होते हैं। मिथ्यात्व और अज्ञान के कारण विवेकहीन जीव लोक मूढ़ता वश अदेवादि की पूजा भक्ति करता है, जिससे अनन्त संसार में घूमता रहता है।
गाथा-२५
शुद्ध पूजा का फल तेनाह पूज सुद्धं च, सुद्ध तत्व प्रकासकं।
पंडितो वन्दना पूजा, मुक्ति गमनं न संसया ॥ अन्वयार्थ-(तेनाह) इसीलिये कहा है मैंने (पूज सुद्धं च) शुद्ध पूजा का स्वरूप [यह शुद्ध पूजा (सुद्ध तत्व) शुद्ध तत्व की (प्रकासक) प्रकाशक है (पंडितो) ज्ञानी इस प्रकार की] (वन्दना पूजा) वन्दना पूजा करके (मुक्ति गमन) मुक्ति को प्राप्त करते हैं (न संसया) इसमें कोई संशय नहीं है।
अर्थ - अदेवादि की पूजा से जीव संसार में परिभ्रमण करता है। (आचार्य प्रवर श्रीमद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज कहते हैं कि) इसीलिये मैंने शुद्ध पूजा का स्वरूप कहा है । यह शुद्ध पूजा शुद्ध तत्त्व का प्रकाश करने वाली है, ज्ञानी पंडित इस विधि से वन्दना पूजा करके मुक्ति को प्राप्त करते हैं, इसमें कोई संशय नहीं है। प्रश्न १- श्री जिन तारण स्वामी जी ने शुद्ध पूजा का स्वरूप किस कारण से कहा है? उत्तर - अदेव आदि की पूजा जीव को संसार में परिभ्रमण कराने वाली है इसलिये श्री जिन तारण
स्वामी जी ने शुद्ध पूजा का स्वरूप कहा है।