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________________ गाथा - २३ जिनेन्द्र कथित शुद्ध पूजा का महत्व पूजतं च जिनं उक्तं, पंडितो पूजतो सदा । पूजतं सुद्ध साधं च, मुक्ति गमनं च कारनं ॥ अन्वयार्थ-(पूजतंच) पूजा का स्वरूप (जिनं उक्तं) जैसा जिनेन्द्र भगवान ने कहा है (पंडितो) ज्ञानी (सदा) हमेशा (पूजतो) उसी प्रकार पूजा करता है (सुद्ध साधं च) शुद्ध स्वभाव की साधना ही (पूजत) सच्ची पूजा है [जो] (मुक्ति गमनं च) मुक्ति गमन का (कारनं) कारण है। अर्थ - जिनेन्द्र भगवान ने पूजा का जैसा स्वरूप कहा है, सम्यग्ज्ञानी साधक भगवान के बतलाये अनुसार हमेशा शुद्ध पूजा करते हैं, पचहत्तर गुणों के द्वारा अरिहंत सिद्ध परमात्मा के गुणों की आराधना करना व्यवहार से पूजा है और शुद्ध स्वभाव की साधना करना निश्चय से सच्ची पूजा है, यह पूजा मुक्ति गमन का कारण है। प्रश्न १- शुद्ध पूजा का फल क्या है? उत्तर - जिनेन्द्र परमात्मा ने पूजा का जैसा स्वरूप कहा है ज्ञानीजन हमेशा वैसी ही शुद्ध पूजा अर्थात् स्वाभाव की साधना करते हैं। शुद्ध पूजा से मुक्ति की प्राप्त होती है। प्रश्न २- ज्ञानी को परमात्मा की वाणी का कैसा श्रद्धान होता है? उत्तर - परमात्मा की वाणी को सत्य ध्रुव शाश्वत मानते हुए ज्ञानी यह श्रद्धान करता है कि आत्मा त्रिकाली शुद्ध है, पर द्रव्यों से सर्वथा भिन्न है। निज स्वभाव में लीनता ही धर्म है तथा इस लीनता में क्रमोत्तर वृद्धि ही धर्म का मार्ग है, यही मोक्ष का कारण है। गाथा - २४ अदेवादि की पूजा संसार का कारण है अदेवं अन्यान मूट च, अगुरं अपूज पूजतं । मिथ्यातं सकल जानन्ते, पूजा संसार भाजनं ॥ अन्वयार्थ - (अदेव) अदेव (च) और (अगुरं) अगुरू [जो] (अपूज) अपूज्य होते हैं (अन्यान मूढं) अज्ञानी मूढ जीव इनकी] (पूजतं) पूजा करते हैं ज्ञानी] (सकल) इस सबको (मिथ्यातं) मिथ्य (जानन्ते) जानते हैं (पूजा) यह पूजा [जीव को] (संसार भाजन) संसार का पात्र बनाने वाली है। अर्थ- अदेव और अगुरू जो अपूज्य होते हैं, अज्ञानी मूढ जीव अदेव और अगुरुओं की पूजा करते हैं जबकि ज्ञानीजन अज्ञान जनित मान्यताओं और कार्यों को पूर्णतः मिथ्यात्व जानते हैं। अदेव अगुरु आदि की पूजा जीव को संसार का पात्र बनाने वाली है। प्रश्न १- अज्ञानी मूढ जीव क्या करते हैं और उसका क्या परिणाम होता है ? उत्तर - अज्ञानी मूढ़ जीव देवत्व रहित अदेवों की तथा अज्ञानी अगुरू जो अपूज्य होते हैं, उनकी पूजा भक्ति करते हैं और दुर्गति के पात्र बनते हैं। जो अदेवादि की पूजा करते हैं, उन्हें इष्ट मानते हैं वे अज्ञानी जीव संसार के पात्र बनते हैं अर्थात् चार गति चौरासी लाख योनियों में अनन्त काल तक जन्म - मरण के दुःख भोगते हैं।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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