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अपने स्वरूप का स्मरण दर्शन होता है। परमात्मा अपने देह देवालय में विराजमान है,
जिसकी दृष्टि उस पर जाती है, उसको ही निज परमात्मा के दर्शन होते हैं। प्रश्न ३- वेदिका अग्रस्थिरस्वैव इस गाथा के अभिप्राय को स्पष्ट कीजिये? उत्तर -
शुद्ध निज स्वभाव की वेदिकाग्र थिर होके,
ज्ञानी अनुभवते चिद्रूप निरग्रंथ है। यही परम धौव्य धाम - शुद्धातम देव जो,
सदा चतुष्टय मयी अनादि अनन्त है ॥ तीन लोक मांहि स्व समय शुद्ध है त्रिकाल,
देह देवालय में ही रहता भगवन्त है। ज्ञानी अनुभूति करते निज शुद्धातम की,
यही देव दर्शन निश्चय तारण पंथ है।
गाथा- २२ ज्ञानी करता है सच्ची पूजा आराधना उच्चरनं ऊर्ध सुद्धं च, सद्ध तत्वं च भावना ।
पंडितो पूज आराध्यं, जिन समयं च पूजतं ॥ अन्वयार्थ - (ऊर्ध सुद्ध) ऊर्ध्वगामी शुद्ध स्वभाव की (उच्चरन) स्तुति उच्चारण करते है (च) और (सुद्ध तत्वं च) शुद्ध तत्त्व की (भावना) भावना भाते हैं [इस प्रकार] (पंडितो) सम्यक्ज्ञानी (जिन समयं च) जिन समय अर्थात् वीतरागी शुद्धात्मा परमात्म स्वरूप की (पूजतं) पूजा करते हुए (पूज आराध्यं) पूजा आराधना करते हैं।
अर्थ- ज्ञानीजन ऊर्ध्वगामी शुद्ध स्वभाव की स्तुतियाँ उच्चारण करते हैं, शुद्ध तत्त्व की भावना भाते हैं। इस प्रकार सम्यग्ज्ञानी साधक जिन समय अर्थात् वीतरागी शुद्धात्मा परमात्म स्वरूप की पूजा करते हुए सच्ची पूजा आराधना करते हैं। प्रश्न १- ज्ञानी किस प्रकार स्तुति पूजा आराधना करते हैं ? उत्तर - ज्ञानीजन शुद्ध चिदानन्द मयी ध्रुव स्वभाव की स्तुति उच्चारण करते हैं। हृदय में ध्रुव स्वभाव
की धारणा को दृढ़ता से धारण कर शुद्ध तत्व की भावना भाते हैं। ज्ञानी का पूज्य आराध्य निज शुद्धात्म स्वरूप होता है। अपने वीतराग शुद्धात्म देव का चिन्तन-मनन करना, सच्चा
आराधन और ध्रुव धाम का अनुभव करना सच्ची देव पूजा है। प्रश्न २- सम्यक्दृष्टि ज्ञानी को किस बात का विवेक होता है? उत्तर - सम्यक्दृष्टिज्ञानी निरन्तर निर्विकल्प अनुभव में नहीं रह सकते इसलिये उन्हें भी भक्ति आदि
का राग आता है परन्तु ज्ञानी को हेय, ज्ञेय, उपादेय, इष्ट - अनिष्ट का विवेक होता है। प्रश्न ३- आराधना में कारण कार्य संबंध किस प्रकार घटित होगा? उत्तर - ज्ञानी जानता है कि जैसा कारण होता है वैसा ही कार्य होता है। कारण (आश्रय लेने योग्य)
अपना शुद्धात्म स्वरूप है उसका लक्ष्य रखकर आराधना स्तुति करता है तो कार्य (पर्याय) में भी परमात्म पद प्रगट होता है।