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________________ (साध) उसी की साधना करता है और (न्यानं मयं) ज्ञानमयी स्वभाव पर (पंडितो) ज्ञानी (सदा) हमेशा (दिस्टि) दृष्टि रखता है। अर्थ- आत्मार्थी ज्ञानी पुरुष सम्यग्दर्शन के दोषों से रहित होता है, सम्यक्त्व से शुद्ध होता है। वह हमेशा शुद्ध पद को देखता है, स्वभाव का श्रद्धानी होता है, स्वभाव की ही साधना - आराधना करता है और अपने ज्ञानमयी चिदानंद स्वभाव पर हमेशा दृष्टि रखता है। प्रश्न १- ज्ञानी का दर्शनोपयोग किस प्रकार निर्मल होता है? उत्तर - ज्ञानी सम्यक्त्व के पच्चीस दोषों से रहित निर्दोष दृष्टि के धारी अपने में हमेशा जाग्रत रहते हैं। त्रिकाल शुद्ध चैतन्य मयी निज पद को देखते हैं। ज्ञानी अपने शुद्ध चिद्रूप स्वभाव की साधना करते हैं, जिससे दर्शनोपयोग समस्त मलों से रहित शुद्ध हो जाता है। प्रश्न २- ज्ञानी साधक की अंतरंग भावना कैसी होती है? उत्तर - ज्ञानी ज्ञायक स्वभाव का आश्रय लेकर विशेष समाधि सुख प्रगट करने को उत्सुक रहते हैं अर्थात् निज परमात्म स्वरूप में एकाग्र होकर उसी में लीन रहना चाहते हैं। स्वरूप में कब ऐसी स्थिरता होगी कि श्रेणी माड़कर केवलज्ञान प्रगट होगा। कब ऐसा परम ध्यान होगा कि आत्मा शाश्वत रूप से परमानंदमयी ध्रुव धाम में लीन हो जायेगा । ज्ञानी साधक निरन्तर ऐसी भावना भाते हैं। गाथा-२१ वेदिकाग्र स्थिर होकर - देव दर्शन वेदिका अग्र स्थिरस्चैव, वेदतं निरग्रंथं धुवं । त्रिलोकं समयं सुद्ध, वेद वेदन्ति पंडिता ॥ अन्वयार्थ - (पंडिता) सम्यक्दृष्टि ज्ञानी (वेदिका अग्र) वेदिका के आगे (स्थिरस्वैव) स्थिर होकर (निरग्रंथ) निर्ग्रन्थ (धुर्व) धुव स्वभाव का (वेदत) अनुभव करते हैं [और] (त्रिलोक) तीनों लोक में (समयं सुद्ध) जो शुद्धात्मा (वेद) सम्पूर्ण जिनवाणी का सार है [उसका] (वेदन्ति) वेदन करते हैं। अर्थ- सम्यकदृष्टि ज्ञानी वेदिका के आगे स्थिर होकर निर्ग्रन्थ ध्रुव स्वभाव का अनुभव करते हैं और तीन लोक में जो शुद्धात्मा सम्पूर्ण जिनवाणी का सार है उसका वेदन करते हैं, समस्त संकल्प-विकल्पों से रहित होकर निरंतर शुद्धात्म स्वरूप का अनुभव करते हैं यही देव दर्शन है। प्रश्न १- ज्ञानी किस प्रकार देव दर्शन करते हैं? उत्तर - अपने शुद्ध स्वभाव की वेदिका के आगे स्थिर होकर ज्ञानी, निर्ग्रन्थ चिद्रूप स्वभाव का अनुभव करते हैं। यह अनन्त चतुष्टयमयी ध्रुव स्वभाव निज शुद्धात्मा ही सच्चा देव परमात्मा है। तीनों लोक में त्रिकाल शुद्ध चैतन्य भगवान देह देवालय में वास कर रहा है। ज्ञानी साधक निर्विकल्प होकर शुद्धात्मा की अनुभूति करते हैं, यही वस्तुत: सच्चे देव का दर्शन है। प्रश्न २- तारण तरण चैत्यालय में वेदी पर जिनवाणी विराजमान रहती है, फिर देव दर्शन किस प्रकार होता है? उत्तर - चैत्यालय में वेदिका के सामने स्थिर होकर जिनवाणी के बहुमान पूर्वक आत्म स्वरूप के लक्ष्य से जब दर्शन करते हैं तो अपने आप नेत्र बन्द हो जाते हैं और शुद्ध स्वभाव के आश्रय पूर्वक
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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