SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 109
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्न १- सम्यग्दर्शन के लिये सर्वाधिक आवश्यक क्या है? उत्तर - सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिये आत्म स्वभाव की रुचि सर्वाधिक आवश्यक है। जिसको यथार्थ की रुचि होती है, उसका ज्ञान अल्प हो, तो भी रुचि के बल पर सम्यग्दर्शन होता है। प्रश्न २- अंतर शोधन का मार्ग क्या है? उत्तर - ज्ञानी को द्रव्य दृष्टि प्रगट हो जाती है। वह ध्रुव तत्त्व के आश्रय पूर्वक स्वरूप स्थिरता में वृद्धि करता है, जिससे पर्याय में शुद्धि प्रगट होती जाती है। यथार्थ दृष्टि होने के पश्चात् भी ज्ञानी, सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की निर्मल पर्याय जितने-जितने अंश में प्रगट होती है, उसको ही धर्म मानता है। इससे समस्त दोषों का क्रमश: अभाव होता है यही अंतर शोधन का मार्ग है। गाथा - १९ निर्दोष सम्यक्त्व का धारी सम्यक्दृष्टि ज्ञानी लोकमूट न दिस्टन्ते, देव पाषंड न दिस्टते । अनायतन मद अस्टं च, संका अस्ट न दिस्टते ॥ अन्वयार्थ - [सम्यक्दृष्टि ज्ञानी] (लोकमूट) लोक मूढ़ता को (न) नहीं (दिस्टन्ते) देखते हैं (देव पाषंड) देव मूढ़ता, पाखंड मूढ़ता को भी (न) नहीं (दिस्टते) देखते (अनायतन) छह अनायतन (मद अस्ट) आठ मद (च) और (संका अस्ट) शंकादि आठ दोषों [को भी] (न दिस्टते) नहीं देखते। अर्थ - सम्यक्दृष्टि ज्ञानी लोक मूढ़ता को नहीं देखते, देव मूढ़ता और पाखंड मूढ़ता को भी नहीं देखते अर्थात् किसी भी प्रकार की मिथ्या मान्यता को ग्रहण नहीं करते । छह अनायतन,आठ मद और शंकादि आठ दोषों को भी नहीं देखते अर्थात् ज्ञानीजन सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोषों से रहित होते हैं और निर्मल श्रद्धान सहित सत्य धर्म का आराधन करते हैं। प्रश्न १- ज्ञानी सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोषों के त्यागी कैसे होते हैं? उत्तर - जब आत्मा का ज्ञान, ज्ञान को ही ग्रहण करता है अर्थात् शुद्ध आत्मा का ही वेदन होता है, तब वहाँ तीनों प्रकार की मूढ़ता-देव मूढ़ता लोकमूढ़ता पाखण्ड मूढ़ता नहीं रहती। छह अनायतन, आठ मद और शंका आदि ८ दोष नहीं रहते, इस प्रकार ज्ञानी इन २५ दोषों के त्यागी होते हैं। प्रश्न २- सम्यक् दृष्टि ज्ञानी की परिणति कैसी होती है? उत्तर - जब आत्मलीनता प्रगाढ़ होती है तो सम्यक्दृष्टि को एकमात्र ज्ञायक चैतन्य स्वरूप, शरीर से भिन्न भासित होता है। भेदज्ञान की यह निर्मल परिणति निरंतर वृद्धिंगत होती जाती है। गाथा-२० ज्ञानी शुद्ध पद का साधक होता है दिस्टतं सुद्ध पदं साधं, दरसनं मल विमुक्तयं । न्यानं मयं सुद्ध संमिक्तं,पंडितो दिस्टि सदा बुधै ॥ अन्वयार्थ - (बुधै) सम्यक्दृष्टि ज्ञानी (दरसनं मल) सम्यग्दर्शन के दोषों से (विमुक्तयं) रहित होता है (सुद्ध संमिक्त) सम्यक्त्व से शुद्ध होता है (सुद्ध) शुद्ध (पद) पद को (दिस्टत) देखता है
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy