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प्रश्न २
उत्तर
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उत्तर
प्रश्न ३ - वस्तुत: प्रक्षालन का अभिप्राय क्या है ?
उत्तर
ज्ञान स्नान और प्रक्षालन से क्या उपलब्धि होती है ?
ज्ञान स्वरूप आत्मा के आश्रय पूर्वक बार-बार ज्ञान में स्नान और प्रक्षालन करने से
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(१) निज पद की प्राप्ति होती है।
कर्मों का क्षय होता है।
कर्मों का बंध नहीं होता ।
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(३)
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(२)
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गाथा - १५
मन की चपलता और त्रिविध कर्म का प्रक्षालन प्रषालितं मनं चवलं, त्रिविधि कर्म प्रषालितं । पंडितो वस्त्र संजुक्तं, आभरनं भूषन क्रीयते ॥
अन्वयार्थ (पंडितो) सम्यक् ज्ञानी (मनं चवलं) मन की चंचलता को (प्रचालितं ) प्रक्षालित कर देता है (त्रिविधि) तीन प्रकार के (कर्म) कर्मों को (प्रचालितं ) प्रक्षालित करके (वस्त्र संजुक्तं ) वस्त्र पहिनता है (आभरनं) आभरण ( भूषन) आभूषणों को (क्रीयते) धारण करता है।
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अर्थ - सम्यक्दृष्टि साधक मन की चंचलता को प्रक्षालित कर देता है । द्रव्य कर्म, भाव कर्म, नो कर्म तीनों प्रकार के कर्मों को प्रक्षालित करके शुद्ध स्वभाव धर्म के वस्त्र पहिनता है तथा रत्नत्रय के आभरण और आभूषणों को धारण करता है।
प्रश्न १- पुरुषार्थी साधक को कर्म की प्रबलता क्यों नहीं होती और ज्ञानी किस प्रकार प्रक्षालन करते हैं ?
शुद्ध ज्ञान के जल से ज्ञानी मन की चंचलता और तीनों कर्मों का प्रक्षालन करते हैं अर्थात् धोकर साफ कर देते हैं । द्रव्य कर्म, भाव कर्म और नो कर्म से भिन्न आत्म स्वभाव को पहिचानते हैं, इसलिये पुरुषार्थी साधक को कर्म की प्रबलता नहीं होती। इस प्रकार ज्ञानी शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान कर समस्त दोषों को धोकर साफ कर देते हैं ।
भ्रान्ति का नाश होता है ।
राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होते ।
जीव जड़ कर्म और शरीर आदि पर द्रव्यों से त्रिकाल भिन्न है । वर्तमान में जीव का शरीर से एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध है, फिर भी जीव और शरीर एक नहीं होते।
सम्यग्ज्ञान होने पर अज्ञान जनित एकत्व अपनत्व आदि की मान्यता दूर हो जाती है, इसी का नाम यथार्थ प्रक्षालन है ।
प्रश्न २- ज्ञान मार्ग की साधना की क्या विशेषता है ?
उत्तर
शुभ - अशुभ भाव, मिथ्यात्व, शल्य और
कषाय दूर हो जाती हैं।
ज्ञानी जन, ज्ञानमार्ग की साधना अर्थात् अन्तरशोधन करते हुए निज स्वरूप की आराधना करते हैं, जिससे समस्त रागादि विकार धुल जाते हैं और अपना शुद्ध चैतन्यमयी टंकोत्कीर्ण आत्मा प्रकाशमान होने लगता है ।
प्रश्न ३- ज्ञानी ज्ञानोपयोग रूप ज्ञान में स्नान क्यों करता है ?
उत्तर
सम्यक्ज्ञानी यह दृढ़ता पूर्वक जानता है कि दृष्टि का विषय ध्रुव तत्त्व शुद्धात्मा है। यह