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________________ प्रश्न १- ज्ञानी किन-किन दोषों का प्रक्षालन करते हैं? उत्तर - शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान करके ज्ञानी तीन मिथ्यात्व (मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व, सम्यक् प्रकृति मिथ्यात्व) का प्रक्षालन करते हैं। दु:ख की कारणभूत मिथ्या, माया, निदान तीन शल्यों को दूर कर देते हैं। संसार में परिभ्रमण का कारण कुज्ञान और राग-द्वेषादि दोषों को तथा पापबंध कराने वाली अशुभ भावना का भी प्रक्षालन कर पवित्रता को ग्रहण करते हैं। प्रश्न २- पर्याय में दोष किस कारण से उत्पन्न होते हैं? उत्तर - अनादि काल से जीव अज्ञान मिथ्यात्व और शरीरादि संयोग सहित है। इनमें एकत्व और अपनत्व होने से पर्याय में दोष उत्पन्न होते हैं। अज्ञानी को अज्ञान के कारण और ज्ञानी को पुरुषार्थ की कमजोरी के कारण यह दोष पाये जाते हैं। प्रश्न ३- पर्यायी दोषों को दूर करने का क्या उपाय है? उत्तर - पर्यायी दोषों को दूर करने में कोई दूसरा समर्थ नहीं है। स्वयं को ही स्वयं का शोधन करना पड़ता है और इसमें एक मात्र ज्ञान ही सहकारी है। अपना ज्ञान जितना सूक्ष्म होता जायेगा, जितना ज्ञानोपयोग होगा, चिन्तन-मनन चलेगा उतना ही अन्तर शोधन होता है । ज्ञानी पंडित शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान कर पर से स्वयं को भिन्न अनुभव करके अन्तर के दोषों का प्रक्षालन करते हैं। गाथा - १४ अनंतानुबंधी कषाय और कर्म का प्रक्षालन कषाय चत्रु अनंतानं, पुन्य पाप प्रषालित । प्रषालितं कर्म दुस्ट च, न्यानं अस्नान पंडिता ॥ अन्वयार्थ - (पंडिता) सम्यक्दृष्टि ज्ञानी (न्यानं) ज्ञान (अस्नान) स्नान करके (चत्रु) चार (अनंतानं) अनन्तानुबंधी (कषायं) कषायों को (च) और (पुन्य पाप)पुण्य पापको (प्रषालितं)प्रक्षालित कर देता है तथा संसार में परिभ्रमण कराने वाले] (कर्म दुस्टं) दुष्ट कर्मों को [भी (प्रषालितं) प्रक्षालित कर देता है। अर्थ - आत्मार्थी ज्ञानी ज्ञान स्नान करके अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ इन चार अनंतानुबंधी कषायों को, पुण्य - पाप को तथा संसार में परिभ्रमण कराने में निमित्तभूत कर्मों को भी प्रक्षालित कर देता है। प्रश्न १- "कषायं चत्रु अनंतानं "इस गाथा के अनुसार ज्ञानी किन विकारों का प्रक्षालन कर देते हैं? उत्तर - शुद्ध ज्ञान के जल से ज्ञानी अनन्तानुबंधी चार कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) को धोकर साफ कर देते हैं। शुभ रूप परिणमन पुण्य और अशुभ रूप परिणमन पाप कहलाता है। ज्ञानी को इन दोनों से भी प्रीति नहीं होती, अत: पुण्य-पाप का प्रक्षालन कर देते हैं। चार गति चौरासी लाख योनियों में भ्रमण कराने में निमित्तभूत सभी दुष्ट अर्थात् पापादि रूप अशुभ भावों का भी प्रक्षालन कर देते हैं।
SR No.009716
Book TitleGyanpushpa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages211
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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