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अर्थ- आत्म स्वरूप का जिन्हें बोध हुआ है, ऐसे ज्ञानी सत्पुरुष, आत्मा के शुद्ध चैतन्य लक्षणमयी आत्म धर्म का सदा अनुभव करते हैं, और ध्यान में स्थित होकर ज्ञान के शुद्ध जल में स्नान करते हैं अर्थात् भेदज्ञान तत्त्वनिर्णय पूर्वक स्वभाव की आराधना करते हुए निजानन्द में आनन्दित रहते हैं। प्रश्न १- चेतना लष्यनो धर्मो इस गाथा का अभिप्राय स्पष्ट कीजिये? उत्तर - निज चैतन्य लक्षणमयी त्रिकाली ध्रुव स्वभाव ही धर्म है। जिन्हें अपने चैतन्य स्वभाव की
यथार्थ पहिचान है, वे ज्ञानी हमेशा अपने शुद्ध स्वरूप का अनुभव करते हैं । इसी निज स्वभाव में उपयोग एकाग्र कर चैतन्य का अवलोकन करते हैं। शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान में स्थिर होकर शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान करते हैं। ध्यान में स्थिर होकर ज्ञानी शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान करता है इससे क्या उपलब्धि
होती है? उत्तर - शुद्धात्म स्वरूप के ध्यान में स्थिर होकर ज्ञानी शुद्ध ज्ञान के जल में स्नान करता है। जिससे
उसकी अनेक गुण की पर्यायें निर्मल हो जाती हैं। जिस प्रकार बसन्त ऋतु आने पर वृक्षों में विविध प्रकार के पत्र - पुष्प फलादि खिल जाते हैं, उसी प्रकार ज्ञानी को चैतन्य की बहार आने पर आनन्द सरोवर में डुबकी लगाने से अनेक गुणों की शुद्ध पर्यायें प्रगट हो जाती हैं।
गाथा-१०
ज्ञानी का शुद्ध ज्ञान मयी जल स्नान सुद्ध तत्वं च वेदन्ते, त्रिभुवनं न्यानं सुरं ।
न्यानं मयं जलं सुद्ध, अस्नानं न्यान पंडिता ॥ अन्वयार्थ- (त्रिभुवन) तीनों लोक में [जो] (न्यानं सुरं) सूर्य के समान केवलज्ञान मयी है (पंडिता) सम्यक्दृष्टि ज्ञानी [ऐसे] (सुद्ध तत्व) शुद्ध तत्त्व का (वेदन्ते) वेदन, अनुभव करते हैं (च) और (न्यानं मयं) ज्ञान मयी (जलं सुद्ध) शुद्ध जल में (अस्नानं न्यान) ज्ञान स्नान करते हैं।
अर्थ - तीनों लोक में जो दैदीप्यमान सूर्य के समान केवलज्ञानमयी है, आत्मज्ञानी सम्यक्दृष्टि साधक ऐसे शुद्धात्म तत्त्व का अनुभव करते हैं और ज्ञानमयी शुद्ध जल में ज्ञान स्नान करते हैं अर्थात् अपने सत्स्वरूप का निरंतर स्मरण आराधन करते हैं। प्रश्न १- ज्ञानी अपने को कैसा जानते हुए अनुभव करते हैं? उत्तर - ज्ञानी जानते हैं कि मैं शुद्धात्मा अनन्त गुणों मयी परमात्म स्वरूप हूँ। त्रिकाल शाश्वत रहने
वाला ज्ञान का पिण्ड ईश्वर, परम ज्ञान रवि जो तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला, जानने
वाला है वह मैं हूँ। इस प्रकार ज्ञानी अपने को परमात्म स्वरूप जानते हुए अनुभव करते हैं। प्रश्न २- ज्ञान, सम्यग्ज्ञान कब कहलाता है और उसकी विषयभूत वस्तु क्या है? उत्तर - ज्ञान का स्वभाव, सामान्य-विशेष को जानना है। जब ज्ञान सम्पूर्ण द्रव्य को और विकार को
ज्यों का त्यों जानकर यह निर्णय करता है कि जो परिपूर्ण स्वभाव है वह मैं हूँ और जो विकार है वह मैं नहीं हूँ, तब वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यग्दर्शन रूप विकसित पर्याय सम्यग्दर्शन की विषयभूत परिपूर्ण वस्तु और अवस्था की कमी इन तीनों को सम्यग्ज्ञान यथार्थ जानता है।