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श्री मालारोहण जी कोई भी भव्य जीव सम्यक्त्व से शुद्ध होंगे, वे स्वानुभूति में रमण करते हुए, आत्मा के अतीन्द्रिय अमृत रस का पान करते हुए मुक्ति को प्राप्त करेंगे। परम वीतरागी श्री जिनेन्द्र भगवंतों का यही कल्याणकारी दिव्य संदेश है। प्रश्न १- इस गाथा का अभिप्राय स्पष्ट कीजिये? उत्तर - जो अनन्त सिद्ध परमात्मा अनादि कालीन संसार के पंच परावर्तन रूप परिभ्रमण से छूटकर
मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उन सबने रत्नत्रयमयी ज्ञान गुण माला शुद्ध स्वरूप की अनुभूति को ग्रहण किया है। इसी प्रकार जो कोई भी भव्यजीव सम्यक्त्व से शुद्ध होंगे, निज शुद्धात्मानुभूति पूर्वक आत्म ध्यान में लीन होंगे, वे भी मोक्ष को प्राप्त करेंगे। ब्रह्मानन्दमयी ज्ञान स्वभाव में
लीन रहेंगे। यह श्री जिनेन्द्र परमात्मा भगवान महावीर ने कहा है। प्रश्न २- सम्यग्दर्शन के लिये कैसा प्रयत्न करना? उत्तर - पहले तो अन्तर में आत्मा की बहुत प्रतीति जाग्रत करना। सद्गुरू का समागम करके तत्त्व का
यथार्थ निर्णय करना। संसार को दु:ख रूप जानकर प्रतिसमय अन्तर में गहरा-गहरा मन्थन करके भेदज्ञान का अभ्यास करना । बार-बार भेदज्ञान का अभ्यास करते-करते जब हृदय में आत्म स्वरूप की महिमा आती है, तब उसका निर्विकल्प अनुभव होता है और उस अनुभव में
सिद्ध भगवान के समान आनन्द का वेदन होता है, उसकी महिमा अनिर्वचनीय है। प्रश्न ३- जिस जीव को सम्यग्दर्शन होने वाला है ऐसे जीव के अन्तरंग बहिरंग कारण क्या हैं? उत्तर - जिस जीव को सम्यग्दर्शन होने वाला है ऐसे जीव के अन्तरंग कारण -१. निकट भव्यता।
२. सम्यक्त्व के प्रति बाधक मिथ्यात्व आदि कर्मों का यथायोग्य उपशम, क्षय, क्षयोपशम । ३. उपदेश आदि ग्रहण करने की योग्यता । ४. संज्ञित्व (पंचेन्द्रिय-सैनी छहों पर्याप्ति से पूर्ण)। ५. परिणामों की शुद्धि (करणलब्धि)।
बहिरंग कारण-सद्गुरू का उपदेश, संसारी वेदना आदि का भय । प्रश्न ४- सम्यग्दर्शन होने पर क्या होता है? उत्तर - रागादि से भिन्न चिदानन्द स्वभाव का भान और अनुभव होते ही धर्मी को उसका नि:संदेह
ज्ञान होता है कि मुझे आत्मा के अपूर्व आनन्द का वेदन हुआ, सम्यग्दर्शन हुआ है, और
मिथ्यात्व का नाश हो गया है, यह दृढ़ प्रतीति हो जाती है। प्रश्न ५- सम्यग्दृष्टि क्या करता है? उत्तर - सम्यग्दृष्टि आत्मा के ज्ञानानन्द स्वभाव की सन्मुखता और रुचि पूर्वक बारह भावनाओं का
चिंतवन कर उपयोग की एकाग्रता को बढ़ाता है। पर द्रव्यों को अच्छा बुरा नहीं मानता, वह अपने मोह, राग द्वेष भाव को ही बुरा मानता है और उन्हें दूर करने का प्रयास करता है। सम्यक् दृष्टि को ज्ञान वैराग्य की ऐसी शक्ति प्रगट होती है कि ग्रहस्थाश्रम में होने पर भी वह किसी भी कार्य में लिप्त नहीं होता। ज्ञानधारा और कर्मधारा दोनों परिणमती हैं। पुरुषार्थ की कमजोरी से अस्थिरता भी होती है। शरीरादि पर से भिन्नत्व भाषित होने से वह अपने चैतन्य ज्ञायक भाव उपयोग की निरंतर संभाल करता है।