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श्री मालारोहण जी
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(४) क्षायिक सम्यक्त्व - चार अनंतानुबंधी कषाय और दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों के सर्वथा क्षय हो जाने पर जो निर्मल श्रद्धान होता है उसे क्षायिक सम्यक्त्व कहते हैं। (५) शुद्ध सम्यक्त्व अपने स्वरूप में पूर्ण तल्लीन होकर अपने में परिपूर्ण शुद्ध हो जाना और निरंतर अपने स्वरूप की अनुभूति में रत रहना शुद्ध सम्यक्त्व है।
प्रश्न २ उत्तर
जिन उक्त सार्धं सु तत्वं प्रकासं, ते माल दिस्टं हिदै कंठ रुलितं ॥
अन्वयार्थ (जे) जो वीतरागी ज्ञानी (चेतना लभ्यनो) चैतन्य लक्षण स्वभाव का ( चेतनित्वं)
हमेशा चिंतवन, अनुभव करते हैं (अचेतं) अचेतन (विनासी) विनाशी (च) और (असत्यं) असत् भावों का ( तिक्तं) त्याग कर देते हैं (जिन उक्त) जिनेन्द्र भगवान के कहे अनुसार (सार्धं) साधना करते हुए (सु तत्वं ) शुद्धात्म तत्त्व का (प्रकासं) प्रकाश करते हैं (ते) वे वीतरागी योगी (माल) ज्ञान गुण माला को (हिदे कंठ) हृदय कंठ में (रूलितं) झूलती हुई (विस्ट) देखते हैं।
अर्थ- जो आत्मज्ञानी साधक चैतन्य लक्षण स्वभाव का हमेशा चिंतन मनन और अनुभव करते हैं, अचेतन, विनाशीक और असत् भावों का त्याग कर देते हैं, जिनेन्द्र परमात्मा के कहे अनुसार आत्म साधना करते हुए शुद्धात्म तत्त्व का प्रकाश करते हैं वे वीतरागी योगी ज्ञान गुणमाला को हृदय कंठ मे झुलती हुई देखते हैं।
प्रश्न १- वीतरागी ज्ञानी की दृष्टि कहाँ रहती है ?
उत्तर
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गाथा - ३०
श्रेणी आरोहण करने वाले योगियों को दिखता है - शुद्धात्म स्वरूप
जे चेतना लष्यनो चेतनित्वं अचेतं विनासी असत्यं च तिक्तं ।
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श्रेणी आरोहण करने वाले जो ज्ञानी चैतन्य लक्षण मयी निज स्वभाव का चिन्तन करते हैं, शरीरादि संयोग और रागादि विभावों से दृष्टि हटाकर शुद्ध स्वभाव की साधना करते हैं। वह ज्ञानी शुद्धात्म तत्त्व का प्रकाश प्रगट करते हुए रत्नत्रयमयी ज्ञान गुण मालिका को अपने हृदय कंठ में झूलती हुई देखते हैं। ज्ञानी ने चैतन्य का अस्तित्व ग्रहण किया है इसलिये अभेद में ही दृष्टि रहती है।
चैतन्य की शोभा निहारने वाले
ज्ञानी कैसे होते हैं?
साधक जीव को अपने अंतर में अनेक गुणों की निर्मल पर्यायें प्रगट हो जाती हैं। जिस प्रकार नन्दनवन में अनेक वृक्षों के विविध प्रकार के पत्र, पुष्प, फलादि खिल उठते हैं, उसी प्रकार साधक के चैतन्य रूपी नन्दनवन में अनेक गुणों की विविध पर्यायें खिल उठती हैं। ज्ञानी, चैतन्य की शोभा निहारने के लिये कौतूहल बुद्धि वाले होते हैं । उन परम पुरुषार्थी महाज्ञानियों की दशा अपूर्व होती है।
प्रश्न ३ - वीतरागी ज्ञानी का क्या लक्ष्य रहता है ?
उत्तर
ज्ञानी की दृष्टि संसार से छूटने की है इसलिये वह स्वभाव के श्रद्धान ज्ञान में दृढ़ होकर अचेतन पर पदार्थ, असत्य रागादि विभाव और पुण्य-पाप आदि का आदर नहीं करता । जो सिद्ध परमात्मा पूर्ण शुद्ध मुक्त हुए हैं, मैं उनके कुल का उत्तराधिकारी हूँ, मुझे अतीन्द्रिय सिद्ध परमात्म दशा को प्रगट करना है, ज्ञानी के अंतर में निरंतर ऐसा लक्ष्य रहता है ।