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श्री मालारोहण जी
प्रश्न ३- पदस्थ आदि चारों ध्यान का संक्षिप्त स्वरूप क्या है? उत्तर -
पदस्थं मंत्र वाक्यस्थं, पिण्डस्थं स्वात्म चिंतनं ।
रूपस्थं सर्व चिद्रूपं, रूपातीतं निरंजनम् ॥ पदस्थ- मंत्र, वाक्य और पदों में चित्त को स्थिर करना पदस्थ ध्यान है। पिण्डस्थ - निजात्म स्वरूप के चिंतवन में एकाग्र होना पिंडस्थ ध्यान है। रूपस्थ - शुद्ध चिद्रूप का चिंतवन करना रूपस्थ ध्यान है। रूपातीत-निरंजन त्रिकाली शुद्धात्मा का ध्यान रूपातीत ध्यान है।
ये चारों ध्यान संस्थान विचय धर्म ध्यान के भेद हैं। प्रश्न ४- आचार्य देव ने यहाँ पदस्थ पिण्डस्थ रूपस्थ ध्यान में चित्त लगाते हैं और रूपातीत
ध्यान में युक्त होते हैं ऐसा किस कारण से कहा है ? उत्तर - प्रथम तीन ध्यान सविकल्प चिंतन रूप हैं, यह तीनों ध्यान धर्म ध्यान में गर्भित हैं। रूपातीत
ध्यान शांत शून्य विकल्प रहित ध्यान है और यह चिंतवन से अतीत, मात्र ज्ञाता दृष्टा रूप से ज्ञानानुभव रूप है। यह पूर्ण निर्विकल्प होने से शुक्ल ध्यान के समान है, इस कारण से ऐसा कथन किया है।
ध्यान : विशेष तथ्य १. किसी एक विचार या आलम्बन पर चित्त का एकाग्र हो जाना ध्यान है। ध्यान की अवस्था में शरीर अत्यन्त भारहीन, मन सूक्ष्म और श्वास-प्रश्वास अलक्षित प्रतीत होते हैं। २. प्रथम भूमिका में ध्यान का अभ्यास करने से दैनिक जीवन चर्या में साधक मोह से विमुक्त हो जाता है। ज्यों-ज्यों वह मोह से विमुक्त होता है, त्यों-त्यों उसे ध्यान में सफलता मिलती है। ध्यान जनित आनन्द की अनुभूति होने पर व्यक्ति को भौतिक जगत में होने वाली कुटिलता, घृणा, स्वार्थ, परिग्रह, विषय भोग आदि नीरस एवं निरर्थक प्रतीत होने लगते हैं। ३. अस्त, व्यस्त, ध्वस्त एवं भग्न मन को शान्त, सुखी एवं स्वस्थ करने के लिये ध्यान सर्वश्रेष्ठ औषधि है। जाग्रत अवस्था में ध्यान अन्तरंग का गहन सुख है, जो अनिर्वचनीय
४. ध्यान कोई तंत्र, मंत्र नहीं है। ध्यान एक साधना है जिसके द्वारा अपने भीतर चैतन्य स्वरुप के आनन्द की प्राप्ति की जाती है। मौन, ध्यान का प्रथम चरण है। मौन का अर्थ है- बाह्य संचरण छोड़कर अन्त: संचरण करना । मौन का अर्थ है- संयम के द्वारा धीरे-धीरे इन्द्रियों तथा मन के व्यापार को शमन करना। ५. मौन की सफलता होने पर ही ध्यान की सफलता होती है इसलिये जो मौन सो मुनि ऐसा कहते हैं। मौन व्रत धारण करने से राग-द्वेषादि मद मान शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। मौन से गुणों की वृद्धि होती है, मौन से ज्ञान प्राप्त होता है, मौन से उत्तम श्रुतज्ञान प्रगट होता है । मौन से केवलज्ञान प्रगट होता है। भगवान महावीर स्वयं साधु अवस्था में १२ वर्ष तक मौन रहे। ६. ध्यान में गहरे स्तर पर चेतना की निर्ग्रन्थ निर्मल अखण्ड सत्ता का दर्शन होता है। ध्यान द्वारा ही आत्म साक्षात्कार होता है। आत्म तत्त्व, परमात्म तत्त्व में लय हो जाता है। ध्यान की चरम अवस्था में साधक आनंद महोदधि में निमग्न हो जाता है।