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________________ श्री मालारोहण जी चलते हैं, स्वभाव में सुभट हैं, अन्तर में निर्भय हैं, उन्हें किसी कर्मोदय या उपसर्ग का भय नहीं है। मुनिराज को पंचाचार, व्रत नियम इत्यादि शुभ भावों के समय भी भेदज्ञान की धारा, शुद्ध स्वरूप की चारित्र दशा निरन्तर वर्तती रहती है। वे ध्रुव स्वभाव का अवलम्बन लेकर विशेष समाधि सुख प्रगट करने को उत्सुक रहते हैं। स्वरूप में कब ऐसी स्थिरता होगी जब श्रेणी मांड़कर पूर्ण वीतराग दशा प्रगट होगी। कब ऐसा अवसर आयेगा जब परिपूर्ण केवलज्ञान स्वभाव प्रगट होगा । कब ऐसा परम ध्यान होगा कि आत्मा शाश्वत रूप से शुद्ध स्वभाव में लीन हो जायेगा। ऐसी अंतरंग स्थिति वाले वीतरागी साधु समस्त कर्मों को क्षय करके अपने अनन्त गुणों को प्रगट कर रत्नत्रय मालिका से सुशोभित होकर मुक्ति श्री का वरण करते हैं। गाथा-२८ ध्यानी योगी देखते हैं चैतन्य चमत्कार पदस्त पिंडस्त रूपस्त चेतं, रूपा अतीतं जे ध्यान जुक्तं । आरति रौद्रं मय मान तिक्तं, ते माल दिस्ट हिदै कंठ रुलितं ॥ अन्वयार्थ- (जे) जो ज्ञानी योगी (पदस्त) पदस्थ ध्यान (पिंडस्त) पिंडस्थ ध्यान (रूपस्त) रूपस्थ ध्यान में (चेत) चित्त लगाते हैं (रूपा अतीत) रूपातीत (ध्यान) ध्यान में (जुक्त) लीन होते हैं (आरति) आर्त ध्यान (रौद्र) रौद्र ध्यान [और] (मय मान) मद मान का (तिक्तं) त्याग करते हैं (ते) वे योगी ज्ञानी (माल) ज्ञान गुणमाला को (हिदै कंठ) हृदय कंठ में (रुलितं) झुलती हुई (दिस्ट) देखते हैं। अर्थ- स्वानुभव सम्पन्न जो ज्ञानी पुरुष पदस्थ, पिंडस्थ, रूपस्थ ध्यान में चित्त लगाते हैं, रूपातीत ध्यान में लीन होते हैं, आर्त रौद्र ध्यान और मद मान का त्याग करते हैं। वे आत्मदृष्टा योगी ज्ञान गुणमाला को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखते हैं, उन्हें अपने आत्म स्वरूप का निरंतर स्मरण ध्यान रहता है। प्रश्न १- सम्यग्दृष्टि ज्ञानी ध्यानी योगी चैतन्य चमत्कार का दर्शन किस प्रकार करते हैं ? उत्तर - जो आर्त रौद्र ध्यान, मद, मान आदि विकारी भावों से रहित भद्र परिणाम वाले हैं। स्वरूप में आनन्दित रहते हैं। जो ज्ञानी चैतन्य स्वरूप में स्थित होने के लक्ष्य से पदस्थ, पिण्डस्थ, रूपस्थ धर्म ध्यान में चित्त लगाते हैं। आत्म स्वरूप का चिंतवन करते हैं और सिद्ध के समान कर्मों से रहित निज स्वभाव के रूपातीत ध्यान में लीन रहते हैं। ऐसे सम्यग्दृष्टि ज्ञानी-ध्यानी, वीतरागी, योगी, रत्नत्रयमयी ज्ञान गुण माला को अपने हृदयकंठ में झूलती हुई देखते हैं अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप का स्वानुभूति में प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं। प्रश्न २- साधु जीवन क्या है? उत्तर - ज्ञान, ध्यान, तप ही साधु जीवन है। साधु मात्र ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं। जिनके पाप, विषय, कषाय छूट गये हैं और आशा, स्नेह, लोभ, लाज,भय,गारव क्षय हो गये हैं, जो समस्त संयोग सम्बन्ध से मुक्त हो गये हैं। वह अपने स्वरूप में लीनता रूप आत्म ध्यान करते हैं। उनके छटवां - सातवां गुणस्थान होने से धर्म ध्यान होता है। श्रेणी मांड़ने पर शुक्ल ध्यान होता है, जो आठवें गुणस्थान से ऊपर ले जाता है, जिससे केवलज्ञान प्रगट होता है।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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