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श्री मालारोहण जी है- लोभ, वजन, जिम्मेदारी, बड़प्पन का भान रहना, यह सब छूटने पर ही आकिंचन्यपना,
वीतरागता होती है। प्रश्न ३- वीतरागी भावलिंगी साधु की महिमा क्या है? उत्तर - साधु निज स्वरूप में निरन्तर जाग्रत रहते हैं। द्रव्य स्वभाव का अवलम्बन लेकर विभावों से
निवृत्त हो जाते हैं। रत्नत्रय के धारी, मुक्ति के अधिकारी, प्रचुर स्वसंवेदन में रत, वीतरागी भावलिंगी, धर्म शुक्ल ध्यान में रत रहने वाले, सांसारिक प्रपंचों से मुक्त मुनिराज सतत् स्वरूप में रमण करते हैं।
गाथा -२७ प्रमत्त-अप्रमत्त का झूला झूलने वाले देखते हैं - ज्ञान गुणमाला जे दर्सनं न्यान चारित्र सुद्ध, मिथ्यात रागादि असत्यं च तिक्तं ।
ते माल दिस्टं हृिदै कंठ रुलितं, संमिक्त सुद्धं कर्म विमुक्तं ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो ज्ञानी साधक (दर्सन) सम्यग्दर्शन (न्यान) सम्यग्ज्ञान (चारित्र) सम्यक् चारित्र से (सुद्ध) शुद्ध हैं (मिथ्यात) मिथ्यात्व (च) और (असत्यं) असत्य (रागादि) रागादि भावों को (तिक्त) त्याग देते हैं (ते) वे [ज्ञानी] (माल) ज्ञान गुण माला को (हिदै कंठ) अपने हृदय कंठ में (रुलित) झूलती हुई (दिस्ट) देखते हैं [तथा] (समिक्त सुद्ध) शुद्ध सम्यक्त्व सहित (कम विमुक्त) कर्मों से मुक्त हो जाते हैं।
अर्थ- जो ज्ञानी साधक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र से शुद्ध हैं, मिथ्यात्व और असत्य रागादि भावों को त्याग देते हैं, वे ज्ञानी ज्ञान गुणमाला को अपने हृदय कंठ से झुलती हुई देखते हैं तथा शुद्धात्म श्रद्धान सहित स्वानुभव में रमण करते हुए कर्मों से मुक्त हो जाते हैं। प्रश्न १- इस गाथा में आचार्य श्री मद् जिन तारण तरण मंडलाचार्य जी महाराज ने ज्ञानी साधु
की साधना का जो रहस्य व्यक्त किया है, उसे स्पष्ट कीजिये? उत्तर - जो ज्ञानी साधक सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र से शुद्ध हैं अर्थात् वीतरागी साधु पद पर स्थित हैं,
जिनका मिथ्यात्व छूट गया है, जो क्षणभंगुर रागादि भावों में युक्त नहीं होते, बल्कि ज्ञायक स्वरूप की साधना में लीन रहते हैं, प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानों में झूला झूलते हैं और स्वानुभवामृत का पान करते हैं। वह ज्ञानी अपने हृदय कंठ में रत्नत्रयमयी ज्ञान गुणमाला को झूलती हुई देखते हैं अर्थात् हर क्षण चिदानन्द मयी ध्रुवधाम का अनुभव करते हैं। इसी शुद्ध
सम्यक्त्वमयी स्वभाव लीनता के बल से कर्मों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। प्रश्न २- आत्मा में अनंत गुण हैं फिर ज्ञान गुणमाला ही क्यों कहा है? उत्तर - जानने का कार्य एकमात्र ज्ञान करता है, अन्य गुणों में जानने की क्रिया नहीं होती। ज्ञान का
स्वभाव स्व - पर प्रकाशक है अर्थात् ज्ञान स्वयं के साथ - साथ अन्य गुणों को भी जानता है आत्मा के अनंत गुणों में ज्ञान गुण प्रधान है इसलिये ज्ञान गुणमाला कहने में अनंत गुण
समाहित हो जाते हैं। प्रश्न ३- वीतरागी भावलिंगी साधु की अंतरंग स्थिति कैसी होती है ? उत्तर - वीतरागी ज्ञानी साधु संसार की इच्छा नहीं रखते, वे संसार से विमुख होकर मोक्ष मार्ग पर