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________________ प्रश्न ३ उत्तर श्री मालारोहण जी ७४ अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क के अभावपूर्वक क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट हो गया है और तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हो गया । सम्यक्त्व होने के पहले यशोधर मुनिराज के गले में सर्प डालने से तुम्हें नरक आयु का बंध हो गया है इसलिये संयम धारण करने के भाव नहीं हो रहे हैं। संयम देव आयु का कारण है। सम्यग्दर्शन के पूर्व आयु बंध न हुआ हो, तो उस जीव को नियम से संयम के भाव होते हैं और वह देवगति जाता है । - - राजा श्रेणिक पूछते हैं कि मुक्ति में प्रवेश किसका होता है ? जिस जीव ने सम्यग्दर्शन के द्वारा ज्ञानानन्द स्वभावी निज भगवान आत्मा को अपनत्वरूप से स्वीकार किया है। सम्यग्ज्ञान द्वारा जिसे अपनत्व रूप से जाना है। उसी में समर्पण है, लीनता है वही शुद्ध दृष्टि सम्यक्त्व के धारी बहुत गुणों से समृद्धवान हैं, उन्हीं जीवों का मुक्ति में प्रवेश होता है। गाथा - २६ वीतरागी साधु रखते हैं निरंतर स्वभाव का स्मरण संमिक्त सुद्धं मिथ्या विरक्तं, लाजं भयं गारव जेवि तिक्तं । ते माल दिस्ट ह्रिदै कंठ रुलितं, मुक्तस्य गामी जिनदेव कथितं ॥ अन्वयार्थ (जेवि ) जो कोई भी भव्य जीव (संमिक्त सुद्ध) शुद्ध सम्यक्त्व के धारी हैं (मिथ्या विरक्तं ) मिथ्यात्व से विरक्त हैं (लाजं) लाज (भयं) भय (गारव) गारव का ( तिक्तं) त्याग करते हैं (ते) वे (माल) ज्ञान गुण माला को (ह्रिदै कंठ) अपने हृदय कंठ में (रुलितं) झूलती हुई (दिस्टं) देखते हैं (मुक्तस्य) मुक्ति को (गामी) प्राप्त करते हैं [ऐसा ] ( जिनदेव ) जिनेन्द्र भगवान ने (कथितं ) कहा है। अर्थ - जो कोई भव्य जीव शुद्ध सम्यक्त्व के धारी हैं, मिथ्यात्व से विरक्त हैं, लाज, भय, गारव का त्याग करते हैं, वे ज्ञानी ज्ञान गुणमाला को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखते हैं, स्व संवेदन का प्रत्यक्ष रसास्वादन करते हुए मुक्ति को प्राप्त करते हैं, श्री जिनेन्द्र भगवान का ऐसा मंगलमय उपदेश है। प्रश्न १- इस गाथा का अभिप्राय क्या है ? उत्तर जो आत्मानुभवी जीव सम्यक्त्व से शुद्ध हैं, मिथ्यात्व से विरक्त हैं तथा लोक लाज, भय, गारव (अहंकार) आदि दोषों को त्याग कर वीतरागी साधु पद धारण करते हैं, वे ज्ञानी रत्नत्रय मयी ज्ञान गुणमाला को अपने हृदय कंठ में झूलती हुई देखते हैं। अपने चैतन्य स्वरूप का अनुभवन करते हैं तथा अपने शुद्ध स्वभाव में लीन होकर मुक्ति को प्राप्त करते हैं। प्रश्न २ - लाज और गारव का स्वरूप क्या है ? उत्तर लाज - शर्म, संकोच, मर्यादा अपने सत्स्वरूप को छिपाना लाज है । जब तक संसार की अपेक्षा, दूसरों का महत्व और मान्यता रहती है, तब तक यह लोक लाज रहती है । अन्तर की संकोच वृत्ति, अपने स्वरूप का पूर्ण स्वाभिमान, बहुमान न होने पर यह लाज रहती है इसीलिये यह आवरण वस्त्रादि पहने जाते हैं, मर्यादा का बंधन रहता है, जो इन सबको छोड़ देता है वह निर्बन्ध, निर्ग्रन्थ हो जाता है। गारव • अहंकार, पद, सत्ता, सामाजिक अधिकार का गौरव रखना गारव है, राग भाव का अंश भी विद्यमान रहना गारव है। यह गारव छूटने पर ही वीतरागता आती है। गारव का अर्थ
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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