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श्री मालारोहण जी रूप प्रकाश हो जाता है किन्तु सम्यक्चारित्र क्रम रूप उत्तरोत्तर होता है। प्रथम अनन्तानुबंधी कषाय चौकड़ी के क्षय पूर्वक चतुर्थ गुणस्थान होता है फिर अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्क के क्षय पूर्वक पंचम गुणस्थान होता है। तत्पश्चात प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षय पूर्वक छटवाँ, सातवाँ गुणस्थान अर्थात् मुनि दशा होती है। संज्वलन कषाय के और चार घातिया कर्मों के क्षय पूर्वक अरिहंत दशा होती है। वे अरिहंत चार अघातिया कर्मों का क्षय कर सिद्ध
बनते हैं। इस तरह से यह रत्नत्रय गुणमाल हृदय कंठ में झूलते हुए पूर्णता को प्राप्त होती है। प्रश्न ३- 'जे सुद्ध दिस्टी संमिक्त जुक्त' से क्या अभिप्राय है इसे दो बार क्यों कहा है? उत्तर - बुद्धि पूर्वक स्वरूप का निर्णय अंतर से स्वीकार करने पर जो मान्यता बदलती है,सम्यक् होती
है इसे सम्यक्त्व कहते हैं। सम्यक्त्व के बिना स्वानुभव नहीं होता और स्वानुभव पूर्वक ही सम्यग्दर्शन होता है। स्वानुभव एक दशा (पर्याय) है जो जीव को अनादि काल से नहीं हुई, परन्तु दर्शन मोहनीय का उपशम होते ही प्रगट होती है। इस स्वानुभव की अद्भुत महिमा है। स्वानुभव में ही मोक्षमार्ग है। स्वानुभव में जो आनन्द है, वह आनन्द जगत में कहीं भी
नहीं है। प्रश्न ४- आशा, भय, लोभ स्नेह क्या हैं, इनका आत्मा से क्या सम्बंध है? उत्तर - आशा - चाह को आशा कहते हैं। यह काम अभी नहीं हुआ, लेकिन अब हो जायेगा, ऐसा
नहीं हुआ, तो ऐसा हो जायेगा, यह माया का चक्र ही आशा है और संसारी जीव इसी आशा से जीते हैं। स्त्री, पुत्र, परिवार, धन, वैभव, परिग्रह इसी आशा की पूर्ति के लिये हैं। यदि आशा न हो, तो फिर इनकी क्या जरूरत है ? यह आशा मोह की तीव्रता में होती है, जो अज्ञान भाव है। अव्रत दशा में आशा छूटती नहीं है। भय - शंकित होने, डरने को भय कहते हैं। सम्यग्दृष्टि के संसारी सात भय छूट जाते हैं परन्तु नो कषाय रूप भय तथा संज्ञा रूप भय सत्ता में रहते हैं इसलिये कर्मोदय जन्य स्थिति में भयभीतपना होता है, यह भी अज्ञान भाव है। मोह के कारण शंका-कुशंका और भय होता है, यह भी अव्रत दशा में छूटता नहीं है। लोभ- परिग्रह की मूर्छा, धन वैभव की चाह और संग्रह करने को लोभ कहते हैं। लोभ पाप का बाप है, जब तक जीव पापादि के संयोग में अव्रत दशा में रहता है, तब तक यह होता है, इसी से नाना प्रकार के विकल्प भय और चिन्तायें होती हैं। स्नेह- लगाव, अपनत्व, प्रियता, प्रेम भाव को स्नेह कहते हैं। स्नेह का बंधन ही संसार है, यह रेशम की गांठ की तरह सूक्ष्म होता है, सहज में नहीं छूटता, यह प्रमाद का अंग भी है, स्त्री आदि के स्नेह वश जीव संसार में रुलता है। यह सब परिणाम चारित्र मोहनीय के कारण अव्रत दशा में होते हैं और इनके सद्भाव में जीव अपने स्वभाव की ओर दृष्टि नहीं कर पाता। आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध नहीं है और यह आत्मा के स्वभाव में नहीं हैं परन्तु जब तक विभाव रूप परिणमन है और अव्रत भाव है, तब तक यह सब होते हैं, इनके होते हुए जीव अपने स्वरूप की साधना नहीं कर सकता । आशा, भय, लोभ, स्नेह का त्याग होने पर परिवार आदि से मोह भाव छूटने पर जब संयम भाव आता है, तब अपने स्वरूप की सुरत रहती है और वह साधक अपने स्वभाव की साधना करता हुआ आनंद में रहता है।