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________________ श्री मालारोहण जी प्रश्न २- संसार में किस जीव को रत्नत्रय मालिका प्राप्त हो सकती है ? उत्तर - संसार के समस्त जीवों में से किसी भी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक भव्य जीव को निज शुद्धात्मानुभूति (सम्यग्दर्शन) द्वारा रत्नत्रय मालिका प्राप्त हो सकती है। प्रश्न ३- मुक्ति श्री का वरण कौन करता है ? उत्तर - पाँच इन्द्रिय और मन की ओर प्रवर्तित बुद्धि को जो पुरुषार्थी भव्य जीव पर लक्ष्य में जाने से रोक कर आनन्द मयी आत्मा की ओर उन्मुख होता है, वह मोक्ष महल की सीढ़ियों पर चढ़ता है, उसे ही यह ज्ञान गुणमाला शुद्धात्मानुभूति रूप प्राप्त होती है और वही मुक्ति श्री का वरण करता है। गाथा-२४ सम्यकदृष्टि निर्विकारी साधक करते हैं स्वरूप दर्शन जे सुद्ध दिस्टी संमिक्त जुक्तं, जिन उक्त सत्यं सु तत्वार्थ साधं । आसा भय लोभ अस्नेह तिक्त, ते माल दिस्ट हिंदै कंठ रुलितं ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो (सुद्ध दिस्टी) शुद्ध दृष्टि (समिक्त) सम्यक्त्व से (जुक्त) युक्त हैं (जिन उक्त) जिनेन्द्र भगवान के वचनानुसार (सत्यं) सत्य स्वरूप (सु तत्वार्थ) प्रयोजनीय निज शुद्धात्म तत्त्व की (साध) साधना करते हैं (आसा) आशा (भय) भय (लोभ) लोभ (अस्नेह) स्नेह का (तिक्त) त्याग करते हैं (ते) वे (माल) ज्ञान गुणमाला को (हिदै कंठ) अपने हृदय कंठ में (रुलित) झुलती हुई (दिस्ट) देखते हैं। अर्थ-जो शुद्ध दृष्टि सम्यक्त्व से युक्त हैं, जिनेन्द्र भगवान के वचनानुसार प्रयोजनीय सत् स्वरूप शुद्धात्म तत्त्व की साधना करते हैं और आशा, भय, लोभ, स्नेह का त्याग करते हैं। वे ज्ञानी ज्ञान गुणमाला को अपने हृदय कंठ में झुलती हुई देखते हैं। प्रश्न १- इस गाथा का अभिप्राय क्या है? उत्तर - इस गाथा का अभिप्राय यह है कि जिन्हें निज स्वभाव का अनुभव हो गया है। जो शुद्ध दृष्टि निश्चय सम्यक्त्व से युक्त हैं और जिनवाणी कथित तत्त्व की यथार्थ प्रतीति सहित अपने इष्ट शुद्धात्म स्वरूप की साधना में रत रहते हैं तथा आनन्द मय रहने में बाधक कारण आशा, भय, लोभ, स्नेह, आदि का त्याग करते हैं। वे ज्ञानी अपने हृदय कंठ में ज्ञान गुणमाला को झुलती हुई देखते हैं अर्थात् निज शुद्धात्म तत्त्व का स्वसंवेदन में प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं और आनन्द-परमानन्द में रहते हैं। प्रश्न २- राजा श्रेणिक भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं कि यह रत्नत्रय गुणमाला हृदयकंठ में कब झूलती है? यह कैसे पूर्णता को प्राप्त करती है ? उत्तर - भगवान की दिव्य ध्वनि में समाधान होता है कि हे राजा श्रेणिक ! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता रूप यह गुणमाला क्रम पूर्वक जीव के पुरुषार्थ और कर्मों के उपशम, क्षय, क्षयोपशम से प्रगट होती है। जब जीव अपने पुरुषार्थ से आत्म बोध कर सम्यग्दर्शन प्राप्त करता है, तब ही सम्यग्ज्ञान का उदय होता है। जिस तरह दीपक प्रज्ज्वलित होते ही प्रकाश हो जाता है, उसी तरह सम्यग्दर्शन रूपी दीपक प्रज्ज्वलित होते ही सम्यग्ज्ञान
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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