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श्री मालारोहण जी प्रश्न ४- रत्नत्रय मालिका को प्राप्त करने का क्या उपाय है? उत्तर - अनादि अनन्त शुद्ध चैतन्य स्वरूप के सम्मुख होकर निज स्वभाव की आराधना करना ही
रत्नत्रय मालिका को प्राप्त करने का उपाय है। प्रश्न ५- सत्य धर्म को जीव क्यों भूले हैं और उसका स्वरूप क्या है? उत्तर - अनादि काल से जीव, शुभाशुभ भाव में रुचि होने से सत्य धर्म निज शुद्धात्म स्वरूप को भूले
हैं। आत्मा स्वयं अनन्त गुण निधान अनन्त चतुष्टय का धारी आनन्द स्वरूप है, इसको जाने बिना जीव बाह्य में धर्म करना चाहते हैं। शुभाचरण पुण्य को धर्म मानते हैं, पुण्य की विभूति को हितकारी लाभदायक मानते हैं । दया, दान, व्रत, नियम, संयम आदि शुभाचरण पुण्य बन्ध का कारण है। एक मात्र अपना चैतन्य स्वरूप शुद्ध स्वभाव ही धर्म है।
गाथा - २२ आत्म दर्शन में धन आदि कार्यकारी नहीं किं रत्न का बहुविहि अनंत, किं अर्थ अर्थ नहि कोपि कार्ज।
किं राजचक्रं किं काम रूपं, किं तव तवेत्वं बिन सुद्ध दिस्टी ॥ अन्वयार्थ - (बहुविहि) [आत्मदर्शन में ] बहुत प्रकार के (अनंत) अनन्त (रत्न) रत्नों का (किं) क्या (काज) कार्य है (अर्थ) धन का [भी] (किं अर्थ) क्या प्रयोजन है (कोपि) कोई भी (काज) कार्यकारी (नहि) नहीं है (किं राज) क्या राजा (चक्र) क्या चक्रवर्ती (किं काम रूप) क्या कामदेव (किं तव तवेत्व) क्या तप तपने वाले (बिन सुद्ध दिस्टी) बिना शुद्ध दृष्टि के कोई भी शुद्धात्म स्वरूप को नहीं देख सकता।
अर्थ- ज्ञान गुणमाला की प्राप्ति अर्थात् शुद्धात्म स्वरूप का दर्शन करने के लिये बहुत प्रकार के अनन्त रत्नों का क्या काम है ? धन का भी इसमें क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कोई भी बाह्य वस्तु आत्म दर्शन में कार्यकारी नहीं है। क्या राजा, क्या चक्रवर्ती, क्या कामदेव, क्या तपस्या करने वाले, बिना शुद्ध दृष्टि के कोई भी गुणमाला शुद्धात्म स्वरूप को नहीं देख सकते, आत्मानुभूति नहीं कर सकते। प्रश्न १- इस गाथा का क्या अभिप्राय है? उत्तर - निज आत्मानुभूति करने में बहुत प्रकार के रत्नों का क्या काम है ? कुबेरों के समान विपुल
धन की भी क्या आवश्यकता है ? अर्थात् शुद्धात्म स्वरूप की प्राप्ति करने में (परमात्मा का दर्शन करने में) इन बाह्य पदार्थों की कोई आवश्यकता नहीं है। राजा,महाराजा, चक्रवर्ती, कामदेव, विद्याधर या तप के तपने वालों का भी इसमें क्या काम है ? बिना शुद्ध दृष्टि के कोई भी पद या क्रिया आदि से अपने स्वरूप की अनुभूति नहीं हो सकती और बिना सम्यग्दर्शन के
मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती। प्रश्न २- पुण्य को धर्म मानने वाले जीव की अंतरंग इच्छा क्या होती है? उत्तर - सर्वज्ञ भगवान ने कहा है कि जो जीव पुण्य को धर्म मानता है वह मात्र भोग की ही इच्छा रखता
है क्योंकि पुण्य के फल से स्वर्गादि के भोगों की प्राप्ति होती है इसलिये जिसे पुण्य की भावना है तथा वैभव आदि में सुख की कल्पना है, उसके अंतर में भोग की अर्थात् संसार की ही