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________________ श्री मालारोहण जी प्रश्न २- यह सब पूछने में राजा श्रेणिक का अभिप्राय क्या था? उत्तर - राजा श्रेणिक बहुत जिज्ञासु जीव थे, उनका अभिप्राय था कि यह ज्ञान गुणमाला किसको प्राप्त होगी क्योंकि वे स्वयं उसे प्राप्त करना चाहते थे। प्रश्न ३- भगवान महावीर स्वामी ने क्या कहा? उत्तर - भगवान महावीर स्वामी ने कहा कि हे राजा श्रेणिक ! निज शुद्धात्म स्वरूप रत्नत्रय मालिका बाहर की किसी विभूति से या किसी प्रकार के क्रिया कांड से नहीं मिलती क्योंकि यह रत्नत्रयमयी आत्मा का स्वरूप है, यह ज्ञान गुण माला मात्र स्वानुभूति पूर्वक ही ज्ञान में जानने में आती है। जिन जीवों को आत्म स्वरूप का श्रद्धान ज्ञान होता है वे अपने ज्ञान स्वभाव का दर्शन और अनुभव करते हैं। गाथा -२१ भगवान महावीर स्वामी ने किया समाधान श्री वीरनाथ उक्तंति सुद्ध, सुनु श्रेनिराया माला गुनाथ । किं रत्न किं अर्थ किं राजनाथ, किं तव तवेत्वं नवि माल दिस्टं ॥ अन्वयार्थ - (श्री वीरनाथं) श्री वीरनाथ प्रभु (सुद्ध) शुद्धता पूर्वक [ओंकार ध्वनि में] (उक्तंति) कहते हैं (श्रेनिराया) हे राजा श्रेणिक ! (माला गुनाथ) प्रयोजनीय माला के गुणों को (सुनु) सुनो (किं रत्न) क्या रत्न (किं अर्थ) क्या धन (किं राजनाथ) क्या राज्य (किं तव तवेत्व) क्या तप तपने वाले [यह कोई भी] (माल) ज्ञान गुण माला को (नवि) नहीं (दिस्ट) देख सकते। अर्थ- श्री वीरनाथ प्रभु शुद्धता पूर्वक दिव्य ध्वनि में कहते हैं - हे राजा श्रेणिक ! प्रयोजनीय माला के गुणों को अर्थात् शुद्धात्म स्वरूप की महिमा को सुनो, उसे प्राप्त करने में क्या रत्न, क्या धन, क्या राज्य, क्या तपस्या करने वाले, यह कोई भी ज्ञान गुणमाला को नहीं देख सकते, स्वानुभूति को उपलब्ध नहीं कर सकते। प्रश्न १- भगवान महावीर स्वामी ने राजा श्रेणिक से क्या कहा? उत्तर - केवलज्ञानी श्री महावीर भगवान कहते हैं कि हे राजा श्रेणिक ! शुद्ध चिदानन्द मयी यह ज्ञान गुणमाला अपना ही शुद्धात्म स्वरूप है। निज स्वरूप की अनुभूति करने में रत्नों का, धन का, राज वैभव का, कोरे तत्त्व ज्ञान का या सत्श्रद्धान रहित कोरे तप तपने का क्या प्रयोजन है ? जिसके पास रत्न, धन आदि वस्तुएं हों और दृष्टि अशुद्ध हो, मिथ्यादृष्टि हो उसे यह रत्नत्रय मालिका दिखाई नहीं देगी अर्थात् निज शुद्धात्म स्वरूप अनुभव में नहीं आयेगा। प्रश्न २- जीव के संसार में परिभ्रमण का क्या कारण है ? उत्तर - अनादि से जीव ने अपने स्वरूप को नहीं जाना है। यह शरीर ही मैं हूँ - यह शरीरादि मेरे हैं, मैं इन सबका कर्ता हूँ, ऐसा अनादि से मान रहा है,यह अगृहीत मिथ्यात्व संसार परिभ्रमण का कारण है। प्रश्न ३- जीव के कल्याण का मार्ग कैसे बनता है? उत्तर - मनुष्य भव में सब शुभ योग प्राप्त हुए हैं, बुद्धि मिली है, स्वस्थ शरीर और पुण्य का उदय है। इनका सदुपयोग अपने शुद्धात्म स्वरूप को जानने, भेदज्ञान करने और वस्तु स्वरूप का विचार करने में करें, इससे ही जीव के कल्याण का मार्ग बनता है।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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