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________________ श्री मालारोहण जी गाथा - १७ संसार से मुक्त और शिव सुख से युक्त होने का पुरुषार्थ जे सुद्ध दिस्टी संमिक्त सुद्धं, माला गुनं कंठ ह्रिदय विरुलितं । तत्वार्थ साधं च करोति नित्वं, संसार मुक्त सिव सौष्य वीज ॥ अन्वयार्थ - (जे) जो (सुद्ध दिस्टी) शुद्ध दृष्टि (संमिक्त सुद्ध) शुद्ध सम्यक्त्वी है (माला गुन) ज्ञान गुण माला को (कंठ हिदय) हृदय कंठ में (विरुलित) झूलती हुई देखता है (च) और (नित्व) सदैव, नित्य ही (तत्वार्थ) शुद्धात्म तत्त्व की (साध) साधना (करोति) करता है [यही] (संसार मुक्तं) संसार से मुक्त होने और (सिव सौष्य) मोक्ष सुख को प्राप्त करने का (वीज) पुरुषार्थ है। अर्थ-जो शुद्ध दृष्टि शुद्ध सम्यक्त्वी हैं, जिनका सम्यक्त्व शुद्ध हो गया है अर्थात् मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं हूँ, यह दृढ़ श्रद्धान हो गया है, वे आत्मज्ञानी ज्ञान गुणमाला को हृदय कंठ में विरुलित होती हुई अर्थात् झुलती हुई देखते हैं और नित्य ही शुद्धात्म तत्त्व की साधना करते हैं। यही संसार से मुक्त होने का और मोक्ष के सुख को प्राप्त करने का सच्चा पुरुषार्थ है। प्रश्न १- ज्ञानी संसार से मुक्त होकर मुक्ति के सुख को कैसे प्राप्त करते हैं? उत्तर - अपने शुद्धात्म स्वरूप के अनुभव से जिनकी दृष्टि शुद्ध हुई है, जो सम्यक्त्व से शुद्ध हैं वे ज्ञानी अपने हृदय कंठ में ज्ञान गुणों की माला झूलती हुई देखते हैं अर्थात् उन्हें अपने शुद्धात्मा का स्मरण ध्यान रहता है और समस्त पर द्रव्यों से अपनी दृष्टि हटाकर अपने इष्ट शुद्धात्म तत्त्व की साधना में रत रहते हैं, इसी सत्पुरुषार्थ से ज्ञानी संसार से मुक्त होकर मुक्ति के परम उत्कृष्ट सुख को प्राप्त करते हैं। प्रश्न २- शुद्ध दृष्टि सत्पुरुषार्थ के अंतर्गत क्या करते हैं? उत्तर - शुद्ध दृष्टि ज्ञानी औदयिक आदि पर भावों के समूह का परित्याग करके शरीर, इन्द्रिय और वाणी के अगोचर अपने कारण परमात्म स्वरूप ममल स्वभाव को ध्याते हैं और शुद्ध बोध मय शिव स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करते हैं। गाथा - १८ समवशरण चर्चा (जिनोपदेश में ज्ञान गुण माला की महिमा) न्यानं गुनं माल सुनिर्मलेत्वं, संषेप गुथितं तुव गुन अनंतं । रत्नत्रयं लंकृत स स्वरूपं, तत्वार्थ साधं कथितं जिनेन्द्रं ॥ अन्वयार्थ - (कथितं जिनेन्द्र) जिनेन्द्र भगवान ने कहा है (न्यानं गुन) ज्ञान गुणों की (माल) माला शुद्धात्म स्वरूप] (सनिर्मलेत्व) अत्यंत निर्मल है, इसमें (तुव गुन अनंत) तुम्हारे अनन्त गुण (रत्नत्रयं) रत्नत्रय से (लंकृत) अलंकृत (स स्वरूप) निज स्वरूप में (संषेप गुथितं) संक्षेप में गुंथे हुए हैं इन्हें प्रगट करने के लिये] (तत्वार्थ) प्रयोजन भूत शुद्धात्म तत्त्व की (साध) साधना करो। अर्थ - तीर्थंकर परमात्मा भगवान महावीर स्वामी ने कहा - ज्ञान गुणों की माला निज शुद्धात्म स्वरूप अत्यन्त निर्मल है, इसमें तुम्हारे अनन्त गुण रत्नत्रय से अलंकृत निज स्वरूप में गुंथे हुए हैं, इन्हें प्रगट करने के लिये प्रयोजनीय शुद्धात्म तत्त्व की साधना आराधना करो।
SR No.009715
Book TitleGyanodaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
PublisherTaran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publication Year
Total Pages207
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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