________________
श्री मालारोहण जी कहलाते हैं। वे ज्ञानी, अपने ज्ञान स्वरूपी शुद्धात्म तत्त्व का अनुभव करते हुए एक क्षण में ही मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं। प्रश्न १ - आचार्य श्री जिन तारण स्वामी जी ने अपने ग्रन्थों में धर्म का क्या स्वरूप बतलाया है ? उत्तर - आचार्य श्री जिन तारण स्वामी जी ने अपने सभी ग्रन्थों में आत्मा के चैतन्य लक्षण स्वभाव
को धर्म कहा है, जो सम्पूर्ण जिनवाणी का सार है। उदाहरण स्वरूप कुछ ग्रन्थों के गाथांश इस प्रकार हैं - १. चेतना लक्षणो धर्मो । आत्मा का चैतन्य लक्षण स्वभाव धर्म है। (पंडित पूजा गा. - ९) २. शुद्ध धर्मं च प्रोक्तं च, चेतना लष्यनो सदा। त्रिकाली चेतना लक्षण स्वभाव को शुद्ध धर्म कहा गया है। (तारण तरण श्रावकाचार गाथा - १६८) ३. धम्मं च चेयनत्वं, चेतन लष्यनेहि संजुत्तं । चैतन्य लक्षण से संयुक्त होना, उसका अनुभव करना ही धर्म है।
(न्यान समुच्चय सार गाथा - ७१०) ४. धम्म सहाव उत्तं, चेयन संजुत्त षिपन ससरूवं । कर्मों को क्षय करने वाले स्व स्वरूप चैतन्य स्वभाव से संयुक्त होना धर्म है।
(उपदेश शुद्ध सार गाथा -२७) इसी प्रकार अन्यत्र भी जानना चाहिये। यही चैतन्य लक्षण धर्म है, जिसमें लीन होने मात्र से समस्त दु:खों का अभाव होता है और अपने चैतन्य स्वभाव में लीन होकर ज्ञानी एक क्षण
मात्र में मुक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। प्रश्न २ - जैन आचार्यों ने धर्म के संबंध में क्या देशना दी है? उत्तर - १.दंसण मूलो धम्मो । सम्यग्दर्शन धर्म का मूल है।
(श्री कुन्दकुन्दाचार्य, दर्शन पाहुड़ गाथा -२) २. धम्मो दया विसुद्धो। जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है।
(श्री कुन्दकुन्दाचार्य, बोध पाहुड़ गाथा -२५) ३. मोहक्खोह विहीणो, परिणामो अप्पणो धम्मो । मोह और क्षोभ अर्थात् राग-द्वेष से रहित आत्मा का परिणाम धर्म है। (श्री कुन्दकुन्दाचार्य, भाव पाहुड़ गाथा -८३) ४.संसार दु:खत: सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे। जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठाकर उत्तम सुख में धरता है वह धर्म है। (श्री समंतभद्राचार्य, रत्नकरण्ड श्रावकाचार गाथा -२) ५. सदृष्टि ज्ञान वृत्तानि धर्म धर्मेश्वरा विदुः धर्म के ईश्वर तीर्थंकर अरिहंत भगवान ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र को धर्म कहा है।
(श्री समंतभद्राचार्य, रत्नकरण्ड श्रावकाचार गाथा -३) ६.धम्मो मंगलमुक्कटें अहिंसा संजमो तवो । धर्म उत्कृष्ट मंगल है जो अहिंसा संयम तप स्वरूप है।
(उत्तराध्ययन सूत्र एवं समणसुत्तं) वर्द्धते च तथा मेघात्पूर्व जाता महीरुहाः ।
तथा चिद्रूप सद् ध्यानात् धर्मश्चाभ्युदय प्रद: ॥ जिस प्रकार पहले से ऊगे हुए वृक्ष, मेघ के जल से वृद्धि को प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार शुद्ध चिद्रूप के ध्यान से धर्म भी वृद्धि को प्राप्त होता है और नाना प्रकार के कल्याणों को प्रदान करता है।
(श्री भट्टारक ज्ञानभूषण जी, तत्त्वज्ञान तरंगिणी-१४/९)
७.